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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन द दांन विधिवत अरपि भूसुर पूजि सनमाने सबै । कर जोरि कौशिक कौं निहोरि बहोरि प्रभु बोले तबै ।। हे नाथ त्रिभुवन पावनी गंगा त्रिपथगा है सही।
किहि हेत तजि निज लोक ब्रह्म सरूप द्रवि भूतल वही ।। तब सारी कथा कौशिक मनि ने सुनाई और अंत में कहा
क्रीड़ा करहिं जलजीव नाघत शैल बन अतुराइ के। चलि हरद्वार प्रयाग काशी मिली उदधहि जाइ कै॥ तारो सकल रघुवंश यह सुष देषि नृप आनंद लह्यो ।
निज उद्धरन हित यह पवित्र चरित्र रसपानंद कह्यौ ।। __ इस कथा के अंतर्गत सगर के पुत्रों को शाप, भगीरथ की तपस्या, गंगा की प्रसन्नता और उनके भूतल पर आने की कथा को संक्षेप में कहा गया है।
२. दूसरी पुस्तक 'गंगा भक्त तरंगावली' कवि रामप्रसाद शर्मा 'प्रसाद' की लिखी हुई है। संपूर्ण पुस्तक में कवि का भक्तिभाव लक्षित होता है। पुस्तक की रचना अलवर राज्य के सेनापति पद्मसिंहजी के लिए की गई थी।' यह ग्रन्थ अलवर में संवत् १९३५ में समाप्त हुअा।' ग्रंथ को कवि ने स्वयं ही लिपिबद्ध किया था । पुस्तक में कविता की छटा दर्शनीय है। गणेशजी की प्रार्थना देखिए
मंगल करन हैं अमंगल हरनहार , दास मनरंजन अदासुता दरन हैं। मुनि मन मधुप लुभाने रहैं रैन दिन , सुन्दर सरोज हू की सोभा निदरन हैं । देवन के देव प्रौ अदेव देव सेव करें , भेव न लहत को प्रसाद सुवरन हैं। सेवी कवि नायक सहायक न और असे । सर्व सुखदायक विनायक चरन हैं।
१ सेनापति संदर सकल, पदमसिंघ परवीन । तिन हित रामप्रसाद कवि,लिख्यो ग्रंथ रसलीन ।।
आनंद गुन मंगल सकल, कल मल दलन अपार । अलवर में श्री गंग को, भयो ग्रंथ अवतार ।।
संवत वाण प्रमाणिय, लोक सुनिधि उर प्रान। (१९३५)
पुनि ससि संजुत जाणिये, लिष्यो सुकवि निज पान ॥
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