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अध्याय ४ - भक्ति-काव्य
वरन विविध भूषन बसन पहरि चलत गिरि पंथ । मानहु गिरिवर बाग में फूल्यों वितन बसंत ॥ करत गान गजगामिनी गावत गुन गोपाल । कोकिल कल केकी लजत गति पर मंजु मराल ।। नंदनदन को सदन यह गिरवर गमन विलास ।
हम को दुर्लभ है अगम इनकों सहज सुपास ।। इस उद्घाटन के अवसर पर जो भारी मेला हुया कवि ने उसका भी वर्णन किया है
धावत चारिहु ओर ते, नरनारिन के वृद। सोभा सर सरिता उमगि, मनहु मिली सुषसिंघ ।
कहुं नचत कन्हैया करत ष्याल । बाजंत्र बजावत देत ताल ।। कहं बाजीगर बंदर बनाइ। अति करत ष्याल तिनको नचाइ। कहुं निकर नादिया व्याल भाल । बहु बरन जाति सुचि पंछ पाल । कहुं कहत कवीस्वर वर कवित्त । छवि छंदबंध बरने विचित्र ।। कहुँ रसिक मंडली फिरति संग। रगमगे अंग नंदलाल रंग ।।
मानसीगंगा पर किए गए सर्व प्रथम दीपदान का वर्णन इस प्रकार है
गंगा के प्रसं..'वृज बाल दीपमाल करे , घरे तज जोरि कोरि झाल जहरी है। अति ही उजास पास पास परकास होत , झिलमिलात झाई जल मांही गहरी है। कैसें के बरन हरन मन होत उदै , देर्षे छवि कविहू की मति सी हहरी है । मानसीगंग मानों रूप रस रंग भीज ,
नगनि की जराय जरी चुनरी पहरी है। और पर्वत के ऊपर दीपमाला
धरें दीपमाल वृजबाल ग्वाल गिरिवर पै , मानों गिरिराज आज मनि प्रगटाई हैं। रंभा रति उमा सारदा सची सिद्ध , सावित्री सहित मानौं मन में ललचाई हैं।
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