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अध्याय ४ - भक्ति-काव्य
फारि डारु उदर विदारि डारु प्रांतें सब , पान कर शोरिणत अनंद उर धारिये । दत्त कवि कहै पांय पकरि पछारि डारु , छारि करि डारु बेगि विरद सम्हारिये । कष्ट हरि दास को अष्ट भुज वारी मात , दुष्ट महताब ताको नष्ट कर डारिये ।। भेजिये खबीस खिलखिलत खुसीसौं खूब , बैंचि खाल आमिष खुसीसों खोजि खावै री। प्रबल पिशाच प्रेत डांकिनि चुरैल भत , चौप करि चाटि चाटि चरबी चबावै री। दत्त कवि कहै निज दास की पुकार सुन , सिंह पै सवार हवै के तुरत उठि धावै री। येरी जगदम्ब कविता की अवलम्ब तू है,
मारि वेगि दुष्ट को विलम्ब न लगाव री ॥' यह कवित्त मारण प्रयोग के लिए लिखे गए हैं। इनसे सात्विक भक्ति-भाव प्रगट नहीं होता।
गोवर्द्धन से सम्बन्धित 'गिरवर विलास' नाम का एक अति उत्तम ग्रंथ प्राप्त हुना। इसके रचयिता कवि उदैराम हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि गोत्रर्द्धन में निर्मित कुंज, महल, मानसी गंगा आदि का उद्घाटन करने के समय इस पुस्तक को लिखा गया था। महाराजा सुजानसिंहजी ने इन स्थानों का निर्माण अथवा जीर्णोद्धार कराया था। इन्हीं महाराज ने भरतपुर का किला बनवाया और उसके चारों ओर खाई खुदवाई थी जो अाज भो 'सुजान गंगा' के नाम से विख्यात है । मानसी गंगा का पहला रूप कुछ भी रहा हो किन्तु जिस रूप में यह सरोवर आज विद्यमान है वह महाराज सुजानसिंहजी का प्रयास है। गोवर्धन के महल, तालाब प्रादि का निर्माण उन्होंने ही कराया था, और इन्हीं महाभाग के समय में मानसी गंगा पर सब से पहला दीपदान हुअा। कवि ने स्पष्ट लिखा है
मथुरा तें पछिम दिसा दोइ जोजन सौ ठाम । देवन को दुर्लभ क ह्यौ है गोवर्द्धन नाम । वृजमंडल जदुवंस में अंस कला अवतार । उदित भयो भूपति भवन सूरज हरन अंध्यार ।।
१ ये कवित्त जिस समय अलवर के वयोवृद्ध श्री रामभद्रजी अोझा ने सर्व प्रथम सुनाये थे तो
और भी, जो चोरपाई पर था, एक विचित्र उग्रता से भर गया था।
उनका अस्सा वष का वद्ध शरारभा, जी चारपाइपर था, एक विचित्र
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