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अध्याय ४- भक्ति-काव्य
ऐसा प्रतीत होता है कि कवि शैव था, क्योंकि स्थान-स्थान पर इसके आभास मिलते हैं । नाम तो उनका सोमनाथ था ही, साथ ही 'शशिनाथ' नाम भी उन्हें बहुत प्यारा था।
३. पार्वती की स्तुति, तांडव नृत्य और हिमालय के वर्णन विशेष रूप से अच्छे बन पड़े हैं।
४. यह वर्णन 'पार्वती मंगल' की शैली पर नहीं है। आजकल भो जोगी लोग जिस प्रकार 'व्याहुला' गाते हैं उसी प्रकार के वर्णन, वही कथानक इसमें भी मिलते हैं। यद्यपि जोगियों की तुकबंदी बड़ो विचित्र होतो है, परन्तु वर्ण्य-वस्तु लगभग इसी प्रकार है ।
५. व्रज में प्रचलित विवाह-पद्धति ही इस ग्रन्थ में स्वीकार की गई है। आज भी व्रज भूमि में इस ग्रंथ में वर्णित अनेक प्रथाएँ प्रचलित हैं । खोज में कुछ शिव-स्तुतियां भी प्राप्त हुई।
गंगाजी से सम्बन्धित दो ग्रन्थ मिले - १ गंगा भूतलग्रागमन कथा, २ गंगा भक्ततरंगावली।
१. गंगा भूतलागमन कथा – यह कृति भरतपुर के प्रसिद्ध कवि रसआनंद को लिखी हुई है । इसमें लगभग ६ पत्रों में २५ छंदों द्वारा गंगाजी की कथा कही गई है। इस पुस्तक का निर्माण-काल काव्य के अन्त में लिखे गये इस वाक्य से मिलता है--
_ 'इति श्री रसपानंद विरचिते गंगा भतलग्रागमन कथा सम्पूर्ण । मिति वैसाख कृष्ण २ संवत् १८६३ ।'
संभवतः यह प्रति स्वयं कवि द्वारा ही लिखी गई है क्योंकि उनकी लिखी गई कई अन्य हस्तलिखित पुस्तकों से इसकी लिखावट बहुत कुछ मेल खाती है । इस पुस्तक का पीछे का कुछ अंश किसी दूसरे व्यक्ति ने लिपिबद्ध किया हो ऐसा प्रतीत होता है । पुस्तक का प्रारम्भ प्रार्थना के नीचे लिखे दोहे से होता है--
विष्णु अंग सीतल सलिल, अज उज्ज्वलता बारि ।
उठति जु गंग तरंग हैं, शिवि शिवि शब्द उचारि ।। कथा का प्रारम्भ अरिल्ल छन्द से इस प्रकार होता है
एक समें श्री राम लषन दोऊ वीर हैं। कोशिक मुनि संग गये सुरसरी तीर हैं । जाइ दोऊ कर जोरि बंद पद पान को। करि सुचील अस्नान दियौ बहु दांन कों।
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