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अध्याय ४-- भक्ति-काव्य
अलख अरूप घट घट को निवासी मोहि , जानि अविनासी जोग जुगति जगायोगी ।। प्रानायाम प्रासन असन ध्यान धारनां तै , ब्रह्म को प्रकास रस रासि दरसामोगी। असे चित्त लामोगी तो सुख में रमाअोगी ,
समुक्ति पद पावोगी हमारे पास प्राोगी ।। और गोपियाँ ऊधो पर बरस पड़ी
कौन लिखी पाती कौन पै पठाए तुम , कौन हो कहां ते आये काके मिजवान हो। काकी पहिचानि रसरासि वा निरंजन सों, कौन सीषे ज्ञान कहा भूले अवसान हो । कौन साधे मौन धरि बैठे मौन कौन काके , नैन श्रोत मए भए अजहू अजान हो । अब हम जानी तुम हो दिवान कुबरी के ,
पछ्छ करि आये हो पै मछ्छर समान हो। और बताऔ तो ऊधो
ऊधो कहौ को है जदुनाथ द्वारिका को नाथ , कौन वसुदेव कौन पूत सुखदाई है। कौन है निरंजन अलख अविनासी कौन , ब्रह्म हूँ कहावे कौन जाकी जोति छाई है । इनसौं हमारी कहौ काकी पहिचानि जानि , यात रस रासि बाते मन में न भाई है। प्रीतम हमारो मोर मुकुट लकुट बारो ,
नंद को दुलारो स्याम सुंदर कन्हाई है। गोपियों का अनुमान है कि कृष्ण को कुब्जा के कारण आने में संकोच है।
कौन भांति प्राइबो बनत ब्रजमंडल में , नई प्रानप्यारी वहां अति अकुलावेगी। जोप रसरासि याकौ संग लिये जैये तो, उनके हिये में कैसे यह धौं समावेगी। असे असे अंदेसे करत वह कारौ कान्ह , याही ते न पायौ जानि दासी दुख पावेगी। कंचन की बेली अलबेली कूबरी कौं कोऊ. गूजरी गमेली उहां नजर लगावेगी।
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