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अध्याय ४-- शृंगार-काव्य उन्हीं लीलाओं का वर्णन है जिनमें गोपों का मजाक बना कर उन्हें परेशानी में डाल दिया गया है । इस प्रकार के दो तीन और भी उदाहरण इस पुस्तक में मिलते हैं। कृष्ण एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर देते हैं कि बिचारा गोप बहुत कुछ सोचने पर भी कुछ नहीं कर पाता। उल्टा खुद ही ताले में बन्द होकर रात भर परेशान होता है और उधर चोर कृष्ण उसी को गोपी के साथ एक कमरे में आराम से अपना समय बिताते हैं !
भ्रमर-गीत संबंधी पुस्तकें भी कुछ मिलती हैं । बिरह विलास- रसनायक' कृत-इनकी कविता बहुत उच्चकोटि को है ।
पुस्तक में एक दोहे के बाद एक सवैया या कवित्त दिया हुअा है जिसमें दोहे का स्पष्टीकरण अथवा उसकी व्याख्या है। इस पुस्तक में पचास पत्र हैं और भ्रमरगीत प्रकरण में तो वियोग तथा करुणा का एक विशद और अनुकरणीय सामंजस्य है। मधुकर हमें न सोच कछु जो उन करी निदान ।
सोच यहै अचरज बडो विरद विसार यो कान्ह ।। अब कवित्त में इसका स्पष्टीकरण देखिए
सोच न हमें है गुन प्रोगुन किये को कछू , सोच न हमें है दधि माषन उजारे को। सोच न हमें है रसनायक अमोही भये , सोच न हमें है कछू मथुरा सिधारे कौ।। सोच न हमें है कीनी कुबिजा भले ही प्यारी , सोच न हमें है जोग ज्ञान दिठ धारे को। गोपीनाथ बाजि गोपी रोवत ही छोडी ताको ,
सोच है हमारे ऊधो विरद विसारे कौ।। एक अन्य उदाहरण
ब्रजनारी भोरी तऊ परै न अलि इहि पेच। कहा ठगत ठगिया अरे जोग ठगोरी बेच ॥
१ रसनायक ने अपने को ‘काम्यवनस्थ' लिखा है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि यह
कविश्रेष्ठ कामां के रहने वाले थे जिसे कामवन भी कहते हैं। और इसी दृष्टि से इन ऋवि महोदय को मत्स्य प्रदेशीय माना गया है । 'कामां' वर्तमान भरतपुर जिले की एक तहसील है।
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