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________________ १३२ (iv) और अन्त में : श्रध्याय ४ भक्ति काव्य Jain Education International 3 वचन सारिका के सरस विंग सहित ए जान निज निज मंदिर प्रति गईं सषी सकल गुनषान । (v) राम सिया की जोड़ी का एक दर्शन : बाम अंग राम के विराजत विदेह सुता, लाजत मदन कोटि सोभा दरसाये तें । मानो धन दामिनी अनूप बपु धारे दुहू, राज परजंक पे सुहाग सरसाये तें । भीजे निसिवासर रसीले रंग रीझे मिलि दंपति परस्पर सुगंध बरसाये # 1 संपति सुरेसहू की फीकी सी लगत सेस बरने बने न कोटि मुषहू के गाये तं । (vi) और अब वियोग में भी राम को देखिए : " , इमि कोप सहित रघुपति उदार । गहि वान बहुरि उर किय विचार ॥ ए मृगी नैन सिय हग समान । यह दया लागि त्याग न वान || हुव उदय चंद्र मंडल जिमि प्रलय काल को बोले मंडल तात ? लषि ताहि राम यह उदय भानु सौमित्र विलोकहु ताहि निजि किरणन तें सम दहत कहुं सीतल तर छाया निहारि तिहि सेवन कीजै निकट वारि ॥ गात । (vii) इस ग्रन्थ में और भी अनेक प्रसंगों का उत्तम वर्णन मिलता है । ग्रहो वालि के नंद आनंदकारी । दसग्रीव तें संधि जो में उचारी ॥ करी तें वलब्बीर के नाहि अब्बै । कहो भेद मोसों महावाहु सब्बै ।। त बालिको पुत्र हूयीं तुल्ल्यो । करज्जोरि के राम सो बैन बुल्ल्यौ । दसग्रीव सों सर्वथा संधि नाहीं । धरो जुद्ध की चाहना चित्त सांही ॥ प्रचंड | मारतंड | बिहाल | कराल || For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003396
Book TitleMatsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Gupt
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1962
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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