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मत्स्य प्रदेश को हिन्दी साहित्य को देन यह ग्रन्थ वास्तव में विचित्र है । इसमें भावनाओं का मानवीकरण किया गया है। काव्य की दृष्टि से भावों का यथातथ्य चित्रण इसकी विशेषता कही जा सकती है और यही कारण है जिससे कथा के प्राध्यात्मिक प्रसंग जो सामान्यत: बाल और उत्तर कांड में आते हैं हटा दिये गये हैं। हो सकता है कवि को तुलसी के बाल और उत्तर कांडों के ये प्रसंग उपयुक्त प्रतीत नहीं हुए हों और इसीलिए अपने पूर्व के राम-कथाकारों में तुलसी के नाम का उल्लेख भी नहीं किया हो । कई स्थानों पर जब कवि कल्पना और अलंकारप्रियता की ओर अग्रसर होता दिखाई देता है तो कविवर केशवदासजी का स्मरण हो पाता है। छंदों की विविधता में भी कुछ ऐसा ही आभास होने लगता है। शुद्ध काव्य की दृष्टि से यह पुस्तक एक उच्च स्थान की अधिकारिणी है और कवि की प्रतिभा की द्योतक है । साथ ही इसमें प्रबन्ध काव्य का निर्वाह भी बड़ी चतुराई के साथ किया गया है ।
कुछ फुटकर कवितायो में ऐसे प्रसंग भी कवियों द्वारा लिये गये हैं जैसे ब्रजेस का 'रामोत्सव' अथवा रामनारायण का 'जानकीमंगल'। डीग में मैंने रामनारायण के लिखे तीनों मंगलों को देखा-पार्वतीमंगल, जानकी मंगल तथा राधामंगल । काव्य अच्छा है, उदाहरण अन्यत्र दिए हैं।
राम-भक्ति संबंधी काव्यों के अतिरिक्त कृष्ण-भक्ति के काव्य भी मिलते हैं। कृष्ण की भक्ति संबंधी कविता के कई रूप प्राप्त होते हैं
१. लीलाएँ। २. भ्रमरगीत । ३. राधामंगल ।
४. कृष्ण के जीवन की सम्पूर्ण कथा । पहले कुछ लीलाएँ देखें१. नागलीला-बख्तावरसिंह की दानलीला के उदाहरण शृगार काव्य के
अन्तर्गत दिये जा चुके हैं। दानलीला का एक अन्य संबंधित
प्रसंग देखियेअथ दानलीला लिख्यते
अजब महबूब गोकुल में किया घर नंद का रोसन । धरें सिर मुकुट सुवरन का जराऊ ऊजरा कुदन ॥ रवा शुद प्रोढ पीतांबर सुवह दमसूय विंदावन । अजायब नौ जवां सुन्दर पिलायै जुल्फवर प्रानन ।। सकेले गोप के लड़के लई सब भेन अागू धर । अनूपम बांस की मुरली बजावत है मधुरतानन् ।।
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