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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
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किसी अन्य स्थान पर राज्यवंश का वर्णन भी किया होगा । ५६ पत्र में लिखी इस हस्तलिखित पुस्तक में तो यह वर्णन नहीं है । हो सकता है कि इससे कुछ ही दिनों पूर्व लिखी किसी अन्य पुस्तक में यह वर्णन हो । बहुत खोज करने पर भी वह पुस्तक नहीं मिल सकी ।
३. इस पुस्तक का नाम 'व्रजेद्रविनोद' है और कवि ने इसे 'बलवंतसिंह बहादुरस्य विनोदार्थे' लिखा है। फिर भी कवि की आन्तरिक वृत्ति का प्रभास 'वरन्यौ जुगल किसोर हित' से लग जाता है ।
४. यह पुस्तक प्रधानतः 'नायका' संबंधी है श्रौर नायिका का कोई भी निरू पण शृंगार रस के बिना सार्थक नहीं हो सकता, इस बात को ध्यान में रखते हुए कवि ने सबसे पहले शृंगाररस का निरूपण किया और इसके पश्चात् नायिका की व्याख्या की गई तथा उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन किया गया । विषय को पूर्ण बनाने की दृष्टि से अन्तिम उल्लास में 'नायक-भेद' भी दे दिया गया है ।
५. पुस्तक में प्राप्त कविता उच्च कोटि की है । अनुप्रास आदि शब्द - लंकारों के प्रति उनकी रुचि होना तो उस समय की प्रवृत्ति के अनुसार था, किन्तु इस पुस्तक में अर्थालंकारों का प्रयोग भी बहुत सुन्दर रूप में हुआ है, और प्रकृति-वर्णन कवि की व्यक्तिगत उत्कृष्टता है ।
५. रस कल्लोल - जुगल कवि कृत । दुर्भाग्य से यह पुस्तक अधूरी ही मिली है । इस मिलने वाले अंश में २१ पत्र मात्र हैं और संख्या १५ का छंद भी न जाने क्यों छोड़ दिया गया है । ५३ छंदों में वर्णित इस 'रस कल्लोल' के केवल प्रथम तरंग का ही दर्शन हो सका । इस तरंग में 'स्थायी भाव' का वर्णन है । दूसरी तरंग के लिए कवि ने विषय की दृष्टि से 'विभाव' वर्णन की बात लिखी है
कीनो प्रथम तरंग में, थाई भाव विचार | पुनि विभाव वरनन करों, दुतिय तरंग निहारि ॥
किन्तु यह तरंग हमारे देखने में ना सकी, न जाने किस अनंत उदधि में विलीन हो गई है । इन दो तरंगों की बात जान कर यह आभास होता है। कि कवि ने इस पुस्तक में 'रस' का सुन्दर निरूपण भाव विभाव, अनुभाव, संचारी, श्रादि के अंतर्गत किया होगा ।" यह पुस्तक उस समय लिखी गई जब बलवंत सिंह केवल राजकुमार थे और राज्य के अधिपति उनके पिता बलदेवसिंहजी थे । इस
१ हमें पता लगा था कि इस पुस्तक की पूरी प्रति भरतपुर के किसी पन्ना नामक चपरासी के पास है, किन्तु बहुत प्रयास करने पर भी वह प्रति प्राप्त नहीं हो सकी ।
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