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मत्स्य-प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
११५ कविता की दृष्टि से रास पंचाध्यायी एक सुन्दर ग्रंथ है और वटुनाथ के इस ग्रंथ में स्थान-स्थान पर नंददास की सी काव्य-प्रतिभा दृष्टिगोचर होती है। यह ठीक है कि नंददास की उड़ान और काव्य-चमत्कार में वटुनाथ सर्वत्र इतने ऊँचे नहीं उठ सके हैं, फिर भी इनकी कविता उत्तम कोटि की है और प्रकृति. वर्णन इसकी विशेषता है। इसका निर्माणकाल कवि द्वारा संवत् १८९६ दिया हुअा है
वसू दस षट श्री नंद ह संवत लेउ विचारि. .
ताके आश्विन मास में पूरि करी गिरधारि । इस पुस्तक में १२७ पत्र हैं, और ग्रंथ बहुत सुन्दरता के साथ लिखा गया है। इसमें अनेक राग-रागनियां भी दी गई हैं और उनके भेद बताए गए हैं। वटुनाथ के आश्रयदाता भरतपुर के महाराज बलवंतसिंहजी थे, जैसा पु तक के अन्त में दी गई इन पंक्तियों से स्पष्ट है--
'इति श्री वटुनाथेन कृता श्री रसिक मुकुटमणि नपेंद्र ब्रजेंद्र श्री बलवंतसिंह नपति चक्र चुडामणे हिताय पंचाध्यायो संपूर्णम् । मीती आश्वनि' प्रालंबन की प्रकृति फिर उद्दीपन बन जातो है
ताही छिन उडराज उदित नभ ऊचौ प्रायो, सुषदाई कर उदय राग प्राचीदिश छायो। रसक गनन के ताप हरन मनु व्योम सरोरुह, प्रकट भयौ कमनीय महामंगल मूरति उह ॥ जिमि कामी जन काम बस प्यारी मुख मंडल भल,
कुंकम सौ बहु दिननि मैं घर लहि आतप कौं दलै ।। चन्द्रमा के उदय होते ही और मुरली का शब्द सुन कर
काम विवर्द्धन उह पुनिगान । भई विवस व्रजतिय सुनि कान ॥ सदन सदन तै सब ही निकसीं। घन घन चंद कलित जनु विकसी। वेग चलति मग कुंडल कीये। जहां प्यारौ ठाडौ मन दीये । छेकि सबनि कौं पहले चली । ता बंसी धुनि मग में रलीं ॥ चंदमुखी इंदीवरनैनी । भूषन भूषित वर गजगैनी ॥
मनि मंजीर मधुर धुनि अनी। नील बसन फूलन की बैनी ॥ रूप का ऐसा आभास और फिर कृष्ण का सामीप्य । किन्तु कृष्ण तो छुप जाते हैं
दुरति हरि कुंज द्रुत बंजुल निकर, है गई विरह बस बिकल बामा।
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