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अध्याय ३-शृंगार-काव्य
सघन बन दुरौं जिन जूथपति होत जिमि,
करनिगन तपित चत बिहाला। एक और भी रूप की प्रतिमा देखें
कुंचित केस मुष मकराकृत कुंडल लोल कपोल प्रकासी, मंद हंसी अवलोकनि त्यौं अधरामृत चारु विलोकि हुलासी । देत अभय भुजदंड रमातिय रंजन जोति उरस्थल भासी,
चंदन पौरि अमंदित बेंद सवंदन देषत होत है दासी । गोपियां जिस अवस्था में थीं उसी में कृष्ण के पास पहुंच कर रासलीला में संलग्न हो गईं। प्रचलित प्रथा के अनुसार इसमें भी पांच अध्याय हैं और उनमें भगवान कृष्ण के महारास का हृदयग्राही वर्णन है । __वियोग शृंगार-वर्णन में गोपियों का विरह ही काव्य की सामग्री बनता रहा है। हमारी खोज में भी कई भ्रमर-गीत तथा गोपी-विरह निकले । कुछ 'खरे' भो निकले जो लम्बे-लम्बे कागजों पर स्वतंत्र रूप में लिखे हुए हैं। राम कवि' की लिखी विरह पचीसी एक खरे पर मिली। कवि ने लिखा है 'या तैं कछु गोपी विरह कहू सुनो चित लाय' । एक कवित्त देखें
स्याम के सखा कू आयौ जानि द्विज राम कहैं धाम धाम बास इति बचन सुनाय के। जबते गये हैं व्रज छांडि व्रजराज पूरी , तब तै दई है आज षबरि पठाय कै॥ माय ते छिपाय लाय लाय जमूना के तीर , मंगल गवाय वीर सुबुध बुलाय के।
१ राम का पूरा नाम रामलाल था। इनके द्वारा कुछ लक्षण ग्रन्थों की रचना भी हुई। अधिक वर्णन अन्यत्र देखा जा सकता है।
एक राम कवि और थे जिनका पूरा नाम रामबख्श था। डीग-निवासी वयोवृद्ध पंडित जगन्नाथजी से उनके पास संग्रहीत हस्तलिखित पुस्तकों का अवलोकन करते समय पता लगा कि रामबख्शजी भी 'द्विजराम' उपनाम से कविता करते थे। ये जसवंतसिंहजी के समय में थे और धाऊ गुलाबसिंह जी इनके आश्रयदाता थे। इनका एक आशीर्वादात्मक छंद उक्त पंडितजी ने एक स्थान पर लिखा दिखाया था --
प्रातहि सौं उठि भानु मनायके देत है आसिस यों द्विजरामहि । दंपति जासु लहै मन मोद विनोद को पाय लिखो तह नामहि ।। वाचहु नाहि फिरौ विपरीत सो जो कछु शब्द कठै अभिरामहि । होय प्रसन्न निवास करो सोई धाऊ गुलाब जू के निज धामहि ॥
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