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श्रृंगार-काव्य
वृंदारकवृंद परिचारक समेत हेत, कुसल मनावं ते वे कुसल घरी रहौ ॥ घटाई सौतिन के कंठ दुख गांठ छुहौ, अघ की उघटि आई दीढि पर जी रहो । नैन रस आनंद के भीने रहौ लाडिले के माग लाडिली की अनुराग में भरी रहौ ॥
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मीणां लोगों
अध्याय ३
कृष्ण और राधिका की यह प्रेम-भरी जोड़ी बहुत ही संयत रूप में प्रस्तुत की गई है । 'रसग्रानन्दघन' का यह 'प्रथम रहस्य' है । इस पुस्तक को रसानंद स्वयं ही संग्रह ग्रंथ बताया है - 'रस ग्रानन्दघन संग्रह' |
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खोज में कुछ लोक-गीत भी पाये गये । 'ब्रज का रसिया' यथेष्ट मात्रा में प्रचलित है और ब्रज भूमि में आज भी रसियों की गूंज है । उत्सवों के अवसर पर, मेलों के समय, गोवर्द्धन की परिक्रमा करते हुए रसिक लोग अनेक प्रकार
रसिये गाते सुने जाते हैं। इनमें शृंगार की छटा देखने को मिलतो है, किन्तु इन रसियों का जो रूप हमें मिल सका वह संवत् १६५० के पीछे का है । अतः उन्हें इस प्रबंध में सम्मिलित नहीं किया जा सकता । अलवर के महाराज जयसिंह तथा भरतपुर के महाराज कृष्णसिंह ने इस ओर अनेक प्रयास किए । अलवर के महाराज जयसिंहजी देव के निजी पुस्तकालय में गीतों के संग्रह की दो तीन फाइलें मुझे देखने को मिलीं । चेष्टा इस बात की गई थी कि प्रांत के सभी क्षेत्रों से गीतों का संग्रह किया जाय । स्थान-स्थान पर संग्रह कर्ता भेजे गए और प्रचलित गीतों को 'ग्रामीण गीत' के नाम से संग्रह किया गया। इस हस्तलिखित प्रति में स्थानों तथा व्यक्तियों नाम लिखे हैं । यथा
' गीत मौजा धीरोड़ा कोम गूजर मीणां '
गीत बहुत प्रसिद्ध हैं और 'पचवारा की मोणों' नामक गीत
पचवारा की मीणों नेडा की हे मीरणीं । तोनों राजा जैसिंघ जी बुलावेये ॥ म्हाने कांई फरमावो जी जंसिंघजी महाराज । थाने महल दिखावा हे पचवारा की मोरणी ॥ म्हारै महल घणेरा जी जैसिंघ जी राज थांनै बाग वतांवां हे नैड़ा की मीरणीं ॥ म्हारे बाग घणेरा जी जैसिंघ जी राज । थां न गंहरण घड़ावांहे नेड़ा की मीणीं ॥ म्हारे गहणू घड़ेरों जी जैसिंघ जी राज ।
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