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अध्याय ४-भक्ति-काव्य
नाटक हो कहना चाहता है-"यह नाटिक हनुमान कौ", पुस्तक का नाम भी नाटक हो लिखा है। अब प्रश्न यह उठता है कि यदि शैलो विशेष के कारण कवि अपनी इन दोनों कृतियों को नाटक कहता है तो 'अहिरावण वध' कथा को नाटक क्यों नहीं कहता, उसे 'कथा' क्यों कहता है। अहिरावण कथा के कुछ अंश ये हैं
अहिरावण को बोल कहै रावरण सुनि भाई । राम लक्ष्मण वीर तिन्हें तू हर ले जाई ।। अहिरावण यह सुनत ही मगन भयो तिहि काल । माया करि हर लैगयौ तिनको निसि पाताल ।
कुमर ये कौन के। लीये षडग छिनाय किते षल मारि भगाये। केते कर सौ पकरि मुंड ते मुंड भिराये ।। अहिरावण सिर तोर के डार्यो कुंड मझार । भुजा उपाढ़ी सो पड़ी रावण के दरबार ।।
कुमर ये कौन के । जामवंत सुग्रीव विभीषण सबही भाषे । धन धन पवनकुमार प्राण तें सबके राष ।। कीस भालु कपि कटक के भयो न भावत भोर । रामचन्द्र चाहत उदै कपि कुल कुमद चकोर ।
कुमर ये कौन के॥ इन तीनों पुस्तकों को देखने से कुछ सामान्य निष्कर्ष निकलते हैं
१ कवि हनुमानजी का भक्त था क्योंकि उसने अपनी तीनों पुस्तकों में वे ही प्रसंग लिये हैं जिनमें हनुमानजी की वीरता और बुद्धि का वर्णन है। तीनों पुस्तकों में कवि का उद्देश्य हनुमानजी का महत्त्व दिखाना है।
२ इस कविता पर नंददास के भ्रमर-गीत की स्पष्ट छाप है। 'सखा सन श्याम के', 'सुनो ब्रजनागरी' के आधार पर तीनों रचनाओं की सष्टि की गई है । छन्द-योजना एकदम उसी प्रकार की है। इसका एक मात्र कारण नंददास के भ्रमर-गीत का अधिक प्रचार हो सकता है।
३ कवि ने दो पुस्तकों को नाटक और तीसरी को कथा कहा है। वैसे इन तीनों में कोई अन्तर तो है नहीं, फिर भी इसका समाधान यही हो सकता है कि संस्कृत काव्य में जो प्रसंग नाटक के नाम से प्रचलित थे जैसे 'हनुमान नाटक' उन्हें नाटक कहा गया है और अन्य को कथा । तीनों ही प्रसंगों में कथा संबंधी सम्पूर्ण योजना मिलती है।
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