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अध्याय ३-शृंगार-काव्य लाड लडैतौ कुवर कन्हैया । षेलत प्रांगन देषति मैया ।। बदन चंद चंचल अति नैना । अलक पडे मधुरे कलबैना ।। नासा को मोती अति सोहे । कानन कल हुलरी मन मोहै ।।
लटक रही लट बूंघरवारी। चपल भौंह पर बेंदी कारी॥ इससे प्रगट होता है कि कृष्ण तो आंगन में खेलने वाले बालक थे जिन्हें देख कर उनकी माता प्रसन्न होती थी, 'नायक' नहीं थे जो वासना से प्रेरित होकर इधर उधर फिरते हों। अस्तु
हिन्दी में अनेक रास पंचाध्यायियां प्रसिद्ध हैं। १. नंददास, २. रहीम, ३. नवलसिंह, ४. व्यास आदि की 'रास पंचाध्यायी' मिल चुकी हैं। नंददास की रास पंचाध्यायी तो हिन्दी साहित्य में एक अनुपम कृति है जिसने अपनी काव्य छटा से साहित्य प्रेमियों को प्रभावित किया और अनेक कवियों को इसो प्रकार का काव्य प्रस्तुत करने को प्रोत्साहित किया। मत्स्य प्रदेश की खोज में हमें भी एक रास पंचाध्यायी प्राप्त हुई जिसके रचयिता हैं 'वटुनाथ' । इनकी 'रास पंचाध्यायी' में प्रकृति का बहुत ही उत्कृष्ट वर्णन है।' यह वर्णन आलम्बन के रूप में है और इसके द्वारा एक सुन्दर वातावरण उपस्थित करके कृष्ण के महारास का वर्णन किया गया है जो पुस्तक का प्रधान विषय है।
' कुछ उदाहरण देखिये
जहां बकुल कुंज वंजुल निकुंज । सरस सुहावनी पुंज पुंज ।। मकरंद मोद आमोद नीक । छकि मंज गुंजरत चंचरीक ।। जगमगै मालती लता लूमि । परमल अनूप महर्कत भूमि ॥ छुटि नीर तरगिजा तीर तीर । चहुं चलै तीन विधि को समीर ।। वन करत सुगंधित गंधवाह । चलि मंद मंद हिय भरि उछाह ।। कजै अलिंद के वद गोद । महकत केत की बंध मोद ।। जहां जुही मौंगरा रैनगंध । करि है अलिंद भरि मोद गंध ।। सरसंत सेवती थल सरोज । बरसंत केतकी काम चोज।। जलजीव फिरै चहु नीर नीर । बिहरै अनेक षग तीर तीर । नहीं जिन्हें प्रल की नैक जांच । इक कहीं व्यास सुत सांच सांच ।। सुखरूप मुक्ति की और जुक्ति । सब दरस परस ते करै मुक्ति ।। इमि रूप महावन चंहू अोर । अरु बीस जोजने भू सुठोर ।"
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