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मत्स्य- प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
दवंद वेदरद कन्हैया जे पन कौं प्रति पालें हैं, पाक नजरि पहिचानि गहगही गरु वे दरद उसाल हैं । प्रेम पंथ में डगर्दै जानी अब क्यों हिये सोमनाथ नेही से......
हरदा है,
प्रेम पचीसी हिन्दी साहित्य में एकदम नई चीज है इस काल के अन्य कवियों में हमें पंजाबी भाषा का यह रूप नहीं मिलता । प्रेम की दृष्टि से भी यह प्रेम लौकिक नहीं है, यह तो कृष्ण के प्रति प्रेम है जैसा पुस्तक के चौबीसवें पद्य से स्पष्ट है |
तुझ बिन श्री वृजचंद चंद्रिका चंदन तन हित चाव है, रुचदे नहीं दुकूल रंग संग फूल सूल सरसावे है । तँडे लिये न लरदा जो भी नाहक लोग झगडदा है। सोमनाथ नेही सें ...
और अंत में तो कवि इसे स्पष्ट रूप से "नंद किसोर निमित्त" कह देता है
सूर पचीसा प्रेम को सुनि सुषपावै चित्त
सोमनाथ कवि ने रच्यो नंदकिसोर निमित्त ।
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इस बात का निराकरण नहीं हो पाता कि ग्रारम्भ में पुस्तक का नाम प्रेम पचीसा कहकर अंत में सूर पचीसा क्यों कहा गया है। हो सकता है इसका संबंध कवि ने गोपी और कृष्ण विरह से जोड़ा हो और इस प्रसंग में भ्रमर गीत के नाते सूर का स्मरण कर लिया हो । कृष्ण का वर्णन भी स्थान-स्थान पर प्राता है । जैसे—
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पचरंग पाग लटपटी तिसर्प कलगी मनिगन वारी है, कुंडिल श्रवन कमल से लोचन चंद्र बदन उजियारी है । यौं बनि के व्रजचंद क्यों नही मैंडे डगरनि करदा है, सोमनाथ नेही सें....
कसकत हमेसा तेंडी वंक विलोकनि तिष्षी है, ना जानूं ए पैं कित्थं जालम जादू सिष्पी है । मैं तुज हत्थ विकाया मोहन हुन क्यों कान्ह सोमनाथ नेही सैं......
करदा है,
तुझनूं बिना निरषं मोहन मुझनूं चैन न परदा है,
यह पुस्तक सिलेखाना लाइब्रेरी द्वारा प्रेषित राजकीय पुस्तकालय भरतपुर में मिली थी । इसी जिल्द में "प्र ेम पचीसा" की एक ग्रन्य हस्तलिखित प्रति भी है जिसमें "अंदर दा" के स्थान पर "अंदर विच" लिखा हुआ है । अन्य बातों में अंतर नहीं है । पुस्तक के देखने से निम्नलिखित बातों का पता लगता है
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