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श्रध्याय ३ - श्रृंगार-काव्य
सिंगार हार भार तू तपादरा उदार है । सुवर्ण जूथिका जुही जुहीं सुडार डार है । बोलें कपोत केकी कुलंग, कोकिला कीर सारौं सुरंग ।
चातक सु चषि चंडूल चार, खगराज व्वाल खंजन अपार ।
राधा के साथ कृष्ण का नखसिख भी दिया हुआ है
वक्षस्थल दृढ़ता प्रति धारे। मणिक लाल भृगु लता बिहारे ॥8 भुज ध्वज गज सुंडन परमानें । कोमल कर लषि कंजन जानें ॥ अंग अंग छवि वरणिन जाई । कोटिकाम दुति देखि लजाई ||
राधा के साथ उनकी सखियां, कृष्ण के साथ उनके सखा, बन का सुन्दर स्थान फिर राधा-कृष्ण का मिलन सुखदाई क्यों न होता !
गहवर वन' मोहन लसै तिह मग राधा ग्राइ, जुरी सुदृष्टिहि परसपर वर्षात कहत सिरनाइ ।
[ यहां भी लेखक का पूज्यभाव कथा के साथ है ]
और फिर तो कृष्ण राधा का वही चिरपरिचित प्रेममय झगड़ा -
हो तुम कौन गोप की जाई ।
बिन बूझैं महवन में श्राई ॥
दान - लीला का वर्णन बहुत सुन्दरता के साथ किया गया है और कवि ने लिखा
दान केलि गोविंद की बसौ सदा राधा सहित
इस लीला का फल भी लिखा है-
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वरनी वषत बनाइ । मो उर में जदुराइ ॥
बद्रीनाथ दरस के कोने । जो फल सो यामें चित दीने ॥ जो फल जगन्नाथ परसेतें । सो यह हरि लीला दरसे तें ॥
कृष्ण और राधा के प्रेम-युक्त वार्तालाप का एक उदाहरण
मोहन सुनौ कहै ब्रजनारी । हमरी बाट कहा प्रवारी ॥ तुम हो दान कौन सो चाहो । सो किनि परगट हमैं लषाहो ||
" नए दान" की बातें सुनकर कृष्ण ने कहा
१ ' गहवर बन' ब्रज चौरासी कोस में आता है |
नयें कहें हम कछु न लजावें । नई नई कहो बात सुनावें ॥ यो सघन बन यह निहारों । नई नई तुमसुनि चितधारो ॥
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