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अध्याय ३ -- शृंगार-काव्य
चतुर्थ प्रसंग में 'रूप' देखिए
अमल कमल दल नैन बदन ससि दसन बिसद अति । कुंडल कलित कपोल ललिततर कुंतल हृत मति ॥ पीत बसन बनमाल गर मोहत मराल गति । अंबर नित चित बसति दृगनि ठांनी वह मूरति ॥ ठाढे बोलति कान बैठि पो हु कान्हहि । आए प्रांवहि कान्ह न पाए क्यौंकरि ध्यानहि ॥ चहंघा चितवत कान्ह हसत बोलत कान्हहि कहि । तोहि कहा अलि मयो बानि तज यह किन सुधि गहि ॥ कैसे सुधि-सिष गहौं अरी तू तो भई बौरी ।
कान्ह कान्ह फिरि कान्ह कान्ह कान्हें मुष ढोरी ॥ अंतिम प्रसंग में
जमुना तीर तमाल माधुरी मिलत कदंवनि । सौरभ सुखद समीर भीर भौंरन की अंवनि ।। सुधि कीजै किहि भांति साथ जै सुख हम लीने । कहौ आजु महाराज कहां वे दिन परवीने । सुधि की सुधि जाति सबै सुधि समझहु हितकी ।
प्रभु सौं कछु न बसाइ बिछोही करत न चितकी ॥ इस छोटी सी पुस्तक में
१. संयोग तथा वियोग शृगार के उभय पक्ष का उत्तम चित्रण है । २. कविता सरस और उच्च कोटि की है। ३. स्थान-स्थान पर प्रकृति-वर्णन के सुन्दर प्रसंग हैं।
४. इस पुस्तक के लिखने की निश्चित तिथि तो नहीं मिलती, किंतु इसमें सन्देह नहीं कि इसका निर्माण महाराज सूरजमल के समय में हुआ क्योंकि इसमें उन्हीं के राज का वर्णन है और उन्हीं के पुत्र राजकुमार नाहरसिंह की आज्ञानुसार इसे लिखा गया था।
भरतपुर में वर्तमान किले के अन्दर एक मंदिर है जो बिहारीजी का मंदिर कहा जाता है। यह मंदिर किशोरी महल के पास ही है । यहाँ के एक महन्त 'ब्रजदूलह' नाम से कविता करते थे। इनका समय भी बलवंत काल हो है। इन्होंने स्पष्ट लिखा है
माजी श्री अमृत कौरि भूप बलवंत जू की, सदा राम रामानुज रक्षा करिबी करें।
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