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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन श्रृंगार रस की एक सुन्दर झांकी कवि भोलानाथ ' द्वारा रचित 'लीला पचीसी' नामक पुस्तक में मिलती है। इस पुस्तक में पांच प्रसंग हैं और छंदों की संख्या १०७ है । पुस्तक के अन्त में 'लीला प्रकास' नाम दिया हुआ है । दूसरे प्रसंग का एक उदाहरण
ऐसे सुन्दर समय में जब प्रकृति अपने उद्दाम यौवन में है
कुंजन में द्रुम बेलि फूलि में रहति सदा प्रति । गुंजत मंजु मलिंद वृंद गति मंद सदा गति ॥ तरनि तनूजा नीर तीर कल्लोल सुहाई । नाचत मत्त मयूर हंस वग सारस नांई ॥ वृंदावन सुखधाम प्रिया पीतम कौ छाजत । जहां काम श्रभिराम वाम संग सदा विराजत ।। समय होत रितुराज सरद की रेंनि सुहाई । दंपति जंह विहरंत काम की फिरत दुहाई ॥ किसुक बकुल अनार व द्रुम फूली बेली। कुहू कुहू पिक पुंज मंजु गुंजत अलि केली ॥
तृतीय प्रसंग में -
ये द्वारिका प्राय मिले कुरषेत हेत करि । किये मनोरथ सफल सबन के सब विधि के हरि ॥
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उपरि गयो तब मान बालके हियतें त्यौं ही, कही बड़े रिझवार न चहियत यह तौं त्यों ही । लगी घाय प्रिय हियें बेलि ज्यौं बाल बिहसिके, राषी गरै लगाइ हाय कहि गाढ़े कसिकें । लषि लषि दृगन प्रघात मुदित मन होत दरस प्रति, इक सिंघासन लसत दोऊ दंपति अनन्य गति ।
" भोलानाथ, महाराज सूरजमल के पुत्र नाहरसिंह के आश्रय में रहते थे ।
सूरज लौं परत्तछ अखिल भुव मंडल लहिये । सूरजमल्ल भुवाल अचल अचला में कहिये ॥ नाहरसिंघ प्रसिद्ध पुत्र तिनको जगमाहीं । नित कवि भोलानाथ बसत तिनकी हित छांही ॥ तिनको ही मत पाइ जथा मति लीला बरनी । छूट जाय त्रयताप पढ़त श्री सुनत सुकरनी ॥
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यह वृन्दावन की केलि-क्रीडा या 'महारास' नहीं है, प्रत्युत कुरुक्षेत्र में पुनर्मिलन के अवसर पर कृष्ण का राधा आदि से मिलना है ।
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