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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन .
काव्य रीति समुझौं नहीं है मेरी मति मंद ,
मैं तो कछु जानौं नहीं तुम जानौं गोविंद । पुस्तक से ऐसा प्रतीत होता है कि राजा ने अपने दरबारो कवि या अन्य किसी श्रेष्ठ कवि की बात मानकर इस पुस्तक की रचना की
कवि इंदर आज्ञा दई कीज कृष्ण विलास ,
आज्ञा बषत प्रमान करि लीनी निज उर धार ।' राधा के 'नषसिष' के अंतर्गत कुछ छंद देखें। इन छंदों में स्वच्छ भाषा, स्वाभाविक अलंकार तथा वर्णनशैलो की उत्कृष्टता देखने योग्य है ।
चमकत चौंप चार चित चोषी । दमकति दामिनि दुति दुइ पोषी। कानन कुंडल कनक कलित है । चारु तरोना चपल चलित है। जग मग जूडा जोति जुगत है । परगट पाटी प्रेम पगति हैं। बैनी बिमल पीठि पर राजै । नागिन कदली पत्र विराजै ।। लोल कपोल गोल मन मोहैं । ठोरी चिबुक चारु दुति सोहैं । उरविच कुच सुच रचि रुच राजै ।
कनक कंद दुति देषत लाजै ॥ वर्णन की दृष्टि से शृंगार के सभी उपादान प्रस्तुत किये गए हैंसखी वर्णन
संग की सषी सबै सबै सिंगार साजि के। अंग प्रोप अद्भुत अनंग रंग राजिकै ।। मंद मंद मानिनी गयंद गौन गामिनी।
केलि कर्ण कामिनी चलीं मनौ सुदामिनी ।। वन, वृक्ष, पंछी आदि सभी उद्दीपन-कार्य में सहायता प्रदान कर रहे हैं
तमाल ताल पाल और साल भांति भांति हैं। फरास बांस पास ओ पलास पांति पांति हैं।
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' संभव है "कवि इंदर" भोगीलाल ही हों क्योंकि वे राजा के पास रहते थे और उनकी
कविता भी उच्च कोटि की होती थी। ये छंद "राधा को नषसिष शगार वर्णनं" के अंतर्गत हैं। इस वर्णन में भी पूज्य भावना की रक्षा निरंतर होती रही है, कहीं भी वासना का आभास नहीं मिलता। यह इस कवि की विशेषता है अन्यथा इस युग में राधाकृष्ण के नाम पर निम्नकोटि की शृगारी कविता मिलती है।
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