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अध्याय ३ -शृंगार-काव्य
है।' पुस्तक का प्रारम्भ इस प्रकार होता है
___ 'श्री गणेशाय नमः । श्री सरस्वती नमः । श्री गुरभ्यो नमः । श्री लक्ष्मणजी सहाय । अथ मंगला चरण के पद लिष्यते । राग ईमन ताल धीमो तितालो।
इस पुस्तक में इष्ट लक्ष्मणजी को ही माना गया है और उनके साथ ही तीनों भाइयों को भी महत्त्व प्रदान किया गया है । जैसे
त्रिभुवन मोहन छवि धरे दसरथ्थ दुलारे ।
चारों चतुर के हिय ते मति हूजौ न्यारे ॥ साथ ही अनेक देवी देवताओं का वर्णन भी है। कृष्ण की होरी का एक पद देखिए
राग बिलावल ताल जलद तितालोनंदलाल यह ठीठ कन्हैया पिचकीन रंग मचावै । बीच गैल कै ठाढोई नाच बुरी बुरी गारि सुनावै ॥ तू जु कहै चलि पनिया भरन को उतहै जान न पावै ।
चतुर छैल से छलबल करिके बिनरंग कोऊ न जावे ॥ पुस्तक के पदों में अधिकांश पद हमें अयोध्या ही ले जाते हैं। राम और सीता
राग अल्हैया पाडौ चोतालौ झूलत रंग हिडोरें दोउ मिल झूलत रंग हिडोर । रघुकुल नन्दन और जनक नंदनी चितवन में चित चोर ॥
लक्ष्मणजी भरतपुर के इष्ट थे। कवि ने अन्यत्र लिखा है।
भजो मन लक्ष्मण राजकुमार । सकल सुष्ष दायक भक्तन को अभिमत के दातार ।। तेज प्रताप पुंज एकहि जग प्रगट शेस अवतार । पाखंडन के द्रुम समूह कौं दावानल सु पजार ।। चारवाक सैलन फोरन को इन्द्र वज्र सम त्यार । बोध अंधकार मेंटन कौं सूरज उदै सुदार ॥ जैनी मत मतंग मदिवे पंचानन बल सार । मायावाद भुजंग भंगहित गरुड़ कहत निर्धार ।। विश्व शिरोमणि श्री रघुवर के जय की ध्वजा प्रकार । सरनागत के पाप पुंज मेंटन को गंगाधार ॥ असे प्रभु को सेवन सर्वत्र और व्रथा व्योहार ।
चित्त लगाय चतुर ताही तें तरि भव पारावार ।। २ यह स्पष्ट ही है कि 'चतुर' संगीत के मर्मज्ञ थे।
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