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श्रध्याय २ रोति-काव्य
आधार पर इस पुस्तक का प्रारम्भ संवत् १८०२ से पहले मानना चाहिये ।' इसमें नवों रसों का वर्णन था । इसका प्रमाण पुस्तक की भूमिका तथा उसके नामसे मिलता है ।
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इस पुस्तक की समाप्ति होने तक राज्य का अधिकार बलवन्तसिंहजी के हाथ में आ गया। तरंग के समाप्त होते-होते कवि को लिखना पड़ा
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त श्री मन्महाराजाधिराज राजेंद्र शिरोमरिण यदुकुलावतंस श्री बलवंतसिंह हेतवे लक्ष्मीनारायण सुकवि सुत जुगल विरचतायां साहित्यसार रसतरंगिन्यानि रस कल्लोल नाम ग्रंथे स्थाई भाव निरूपण नाम प्रथम तरंगः |
इसके अतिरिक्त निम्न लिखित कवित्त भी देखें
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सीलवंत देषि भारत कौं
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रोम ह े करि प्रसन्न चैन |
तें अनंत जग जाचक ग्रजाची किये,
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कोई एक संत देहि सब रोम
याहू
जुगल भनत भली नृप बलवंत देन ||
गणेश, सरस्वती यादि की स्तुति करने के उपरान्त कवि ने सर्वप्रथम स्थायी i लया । भाव का वर्णन दर्शनीय है
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१ व्रजचंद श्री बलदेवसिंह जु सुजस जग जाकी छ्यौ । बलवंत बुद्धि विलंद ताके पुत्र है गुणनिधि भयौ ।
तिहि हेत रस कल्लोल नवरस को निरूपरण ले सच्यो ।
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रस अनुकूल विचार जो, भाव नाम जिहि होई । कहत अन्यथा भाव तें, जग विकार कवि लोई ॥ सो विकार दौ भांति कौ, अंतर अरु सारीर । अंतर द्वै विधि कह्यो, स्थाई व्यभिचारीर ॥ रह्यो भेद सारीर इक, ताकी भेव वषानि । सबै प्रगट दीसत रहें, सात्विक भावहि जानि ॥ सौ यह स्थाई भाव, आठ विधि को कह्यो । कविजन लेउ विचारि, भरत मत मैं कह्यौ || 3
लक्ष्मीनारायण सुकवि के सुत जुगल लघुमति तं रच्यो ।
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रस कल्लोल के अतिरिक्त जुगल कवि को लिखा एक ग्रंथ हमें और मिला जिसका नाम है 'करुण पच्चीसा' । विवरण अन्यत्र देखें ।
कवि ने प्रमुख प्राचार्य भरत के मत का प्रतिपादन किया है-
अ. कवि का कहना है- 'भरत मत मैं कह्यौ'
आ. इन्होंने रसों की संख्या ८ ही मानी है जो भरत मत के अनुसार है, वैसे
सामान्यतः रस माने जाते हैं ।
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