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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
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३. यह रचना पदों में है, प्रोर पदों के ऊपर रागों के नाम श्रादि दिए हुए हैं।
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यह तो एक मानी हुई बात है कि उस समय के दूषित और कामुक वातावरण के कारण देशी राजात्रों को मनोवृत्ति शृंगारी रचनाओं की ओर थो मत्स्य प्रदेश का साहित्य इस धारणा का अपवाद सा मालूम होता है । खोज में मिली हुई पुस्तकों के आधार पर कहा जा सकता है कि मत्स्य के राजा इस सामयिक प्रवृत्ति से इतने प्रेरित नहीं थे । मत्स्य में जहां रीति के ग्रन्थ हैं वहां नीति के भी हैं, भक्ति संबंधी साहित्य है तो राजनीति भी है, धर्म-प्रकरण हैं तो युद्ध-कला विशारदता भी है, रामायण और महाभारत के अनुवाद हैं तो भागवत के भाषा - पारायण भी हैं, मंगलों की रचना हुई तो साथ ही अन्य प्राचीन कहानियां भी कही गई हैं । इस प्रकार मत्स्य के विविध विषय-विभूषित साहित्य में कामुक विलास का वह रूप देखने में नहीं प्राता जिसने हिन्दी के उस काल का साहित्य गर्हित बना दिया। यहां के राजाओं का मन भी इस ओर कैसे लग पाता जब कि
१. यहां के राजा अपनी ही झंझटों में फंसे रहते थे, उनके लिये न विलास का अवसर था और न उसकी उपयुक्तता ही,
२. विशेषत: जाट राजा युद्ध के लिये उत्सुक रहते थे, उन्हें दरबारों में चुपचाप बैठकर शृंगारी कविता सुनने की न फुरसत थी और न शौक, ३. गोसांईजी, गोवर्द्धनजी आदि के प्रभाव से राधाकृष्ण की ओर पूज्यभाव अधिक था, उनके विलासमय रूप की प्रोर झुकाव नहीं था । इसका परिणाम यह हुआ कि यहां के साहित्य में एक ओर तो नायक-नायिका का अधिक प्रचार न होने पाया दूसरी ओर कवित्त सवैया प्रादि छंदों में श्रृंगारी कविता भी कम लिखी गई । वैसे खाली मौकों पर दरबारी कवि कुछ शृंगारी रचना अवश्य सुनाते रहे होंगे क्योंकि वातावरण से सब कोई प्रभावित होते हैं। फिर सर्वत्रगामी कवि ही कैसे पीछे रहता, चाहे वह जाटों के दरबार में हो अथवा युद्ध - शिवरों में ।
व्रज में रास लीलाएं बहुत समय से होती आ रही हैं, और इन लीलाओं के आधार पर शृंगार संबंधी कविता भी हुई— राधा-कृष्ण अथवा गोपी-कृष्ण के नाम से श्रृंगारी कविता में बहुत वृद्धि हुई । अलवर नरेश बख्तावरसिंह की लिखी "कृष्ण-लीला" में राधा और कृष्ण दोनों का अलग-अलग नखसिख तथा उनका मिलन और क्रीड़ा आदि प्रसंग दिए गए हैं। राधा-कृष्ण का यह नायक
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