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अध्याय ३
शृंगार-काव्य
शृंगार काव्य के अंतर्गत कई प्रकार की कविता पा सकती है, जैसे-.
१. लक्षण ग्रन्थों में दिए गए उदाहरण, २. कृष्ण की लीलाओं में संयोग तथा विप्रलंभ शृंगार, ३. राजारों के विलास का वर्णन, ४. ऋतु-वर्णन में नायिका आदि का वर्णन, ५. 'नखसिख' या 'सिखनख' में शृंगारी कविता, ६. विवाह प्रादि प्रसंगों में, ७. राधामंगल, पार्वतीमंगल, जानकीमंगल आदि अवसरों पर इस
प्रकार के वर्णन, ८. शृंगार रस के विश्लेषण हेतु लिखी कविता में कामुक चेष्टाओं
के वर्णन, ६. होरी, आदि। 'नखसिख' संबंधी कविता हमने रीतिकाव्य के अंतर्गत ले ली थी क्योंकि उसका प्रतिपादन एक प्रचलित प्रणाली के अनुसार होता था और जो पद्धति बंध गई थी उसमें कोई हेर-फेर नहीं होता था, अन्यथा यह प्रसंग और इससे संबंधित कविता भी शृंगार के अन्दर पाती है। रीतिकाव्य और शृंगार में अंतर करना हिन्दी वालों के लिये थोड़ा कठिन है, क्योंकि जो साहित्य मिलता है उसके आधार पर विभाजन-रेखा खींचना संभव नहीं हो पाता । सिद्धान्त रूप में कवि जिस समय तक लक्षण देता है अथवा किसी बात को समझाता है वह रीतिकार है - आचार्य है, किन्तु जब उदाहरण देते समय सहृदयता का अनुगमन करता है तो शृंगारी कवि बन जाता है। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य का तृतीयकाल 'शृंगारकाल' अथवा 'रीतिकाल' कहलाता है। हमने ये दोनों बातें अलग कर दी हैं क्योंकि मत्स्य-साहित्य का अध्ययन करते समय हमें यह बात स्पष्ट रूप से दिखाई दी कि इस प्रान्त के कवियों में प्राचार्यत्त्व के गुण अधिक हैं और शृंगारी रचना की ओर उनका इतना ध्यान नहीं ।
मत्स्य-प्रान्त में राधाकृष्ण की भक्ति का बहुत प्रचार था अतएव यहां राधा और कृष्ण से संबंधित बहुत सा शृंगारी साहित्य एकत्रित हो गया। दान-लीला
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