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मत्स्य- प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
यह प्रवृत्ति दो रूपों में लक्षित होती हैप्र. लक्षण देने में,
ग्रा. उदाहरण देते समय ।
काव्य के विभिन्न अंगों को समझाते समय सरलता का ध्यान रखा गया है, उदाहरण भी स्पष्ट और सरल दिये गये हैं । मत्स्य में कठिन कविता नहीं मिलती । इसका अभिप्राय यह नहीं कि सरल कविता करने वाले इन कवियों की काव्यकला निम्नकोटि की है । इस अध्याय में स्थान-स्थान पर दिए गये उदाहरण इस बात के पुष्ट प्रमाण हैं कि काव्य-गुणों की दृष्टि से कविता का सामान्य स्तर उच्च ही रहा । सम्भव है राजाओं के लिए लिखे जाने से इन ग्रंथों में सरलता पर विशेष ध्यान दिया गया हो ।
४. प्रसंगों को समझाते समय मत्स्य के आचार्यों द्वारा गद्य का प्रयोग भी यथास्थान किया गया है । उस समय को देखते हुए लक्षणग्रंथों में प्राप्त इस गद्य को हमें सरल और सुगम ही मानना पड़ेगा । गद्य का प्रयोग करते समय आचार्यों का ध्यान बोलचाल की सामान्य भाषा की
र ही रहा । कविता में तो विशिष्ट पदरचना की ओर कुछ ध्यान अवश्य रहता था किन्तु गद्य साधारण होता था । सम्भव है उन लोगों का अनुमान हो कि विशिष्ट पदरचना के लिए केवल पद्य ही उपयुक्त साधन है, गद्य तो बोलचाल की भाषा । गद्य के प्रयोग से विषय को समझने में बहुत आसानी हो गई है ।
५. यहां के कवियों द्वारा काव्य के विभिन्न अंगों की व्याख्या करते समय ब्रजभाषा गद्य को ही प्रयोग हुआ । अलवर में जो भाषा प्रयुक्त हुई वह भी ब्रज ही है । इसका प्रधान कारण उस समय ब्रजभाषा का महत्त्व तथा कवियों का ब्रजप्रदेश से थाना था। जैसे संस्कृत देववाणी होने के कारण सर्वत्र ग्रहण की गई, हो सकता है, उसी प्रकार साहित्य की भाषा के रूप में ब्रजभाषा को ही स्वीकार किया गया, फिर चाहे वह गद्य में प्रयुक्त की गई अथवा पद्य में ।
इसमें संदेह नहीं कि रीतिकाल में मत्स्यप्रदेश के कवियों का अपना एक गौरवपूर्ण स्थान है । सोमनाथ के सम्बन्ध में तो हिन्दीजगत को अब संदेह ही नहीं रहा क्योंकि उनका रसपीयूषनिधि नामक ग्रंथ अब हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि बन गया है । यहां और भी अनेक कवि ऐसे हुए जो अपना व्यक्तिगत उच्च स्थान रखते हैं । कलानिधि, रसानन्द, भोगीलाल और हरिनाथ ऐसे नाम नहीं जिन्हें हिन्दी के रीतिकाल का वर्णन करते समय भुलाया जा सके । कला
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