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अध्याय २-रीति-काव्य
उपर्युक्त विश्लेषण से प्रगट होता है कि१. यह पुस्तक रस संबंधी है और रसराज शृंगार की दृष्टि से नायक
नायिका भेद भी जोड़ दिया गया है। २. पुस्तक की रूपरेखा बहुत वैज्ञानिक और संयत है
अ. पहले मंगलाचरण, फिर प्रा. रस के चारों अंगों-स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव, संचारोभाव
का निरूपण । इ. पुनः नवों रस का स्वरूप, और फिर
ई. नायक-नायिका वर्णन । ३. प्रत्येक विलास में पाई गई छंदसंख्या परम उपयुक्त है। जिस प्रकरण
को जितना स्थान मिलना चाहिये उतना ही दिया गया है । सात्विक और अनुभाव का इतना विस्तार नहीं होता अत: इनको २२ और २३ छंदों में ही समझा दिया गया। नायिका-वर्णन का विस्तार अधिक होता है इसलिये इस प्रसंग को बताने के लिये १५० छंदों का प्रयोग किया गया है । इससे कम 'नवरस सुरूप और चतुर्वृति' नामक विलास को १४२ छंद दिए गए हैं।
२ ग्रन्थ निर्माण काल
संवत रस ६ सर ५ नाग ८ ससि १, कार्तिक शुदि भृगु वार ।
सुतिथि पंचमी ५ द्योस सुभ पूरन ग्रन्थ विचार ॥ संवत् १८५६ में इस ग्रंथ का निर्माण हया । शब्दों के साथ-साथ ऊपर लिखे गए अंक भी पुस्तक में इसी प्रकार दिए हुए हैं।
३ राजवंश वर्णन
राजा के वंश का वर्णन 'सूर्य' से प्रारम्भ किया है-'प्रथम भये सूरज तनय मनुजाधिप मनु नाम'...और इसी प्रकार 'नरूका वीर' तक वर्णन चलता है । अलवर के राजाओं का वर्णन करते हुए बख्तावरसिंहजी का वर्णन इस प्रकार किया है
भये प्रगट तिनतें नृपति, वषतावर रमनीय ।
जैसे छीर समुद्र तें, इंदुकला कमनीय ।। ४ राजगढ़ वर्णन
बगर बगर संपति सगर, लसत मनोहर हर्म्य ।
जगर मगर ज्योतिनु अगर, नगर राजगढ़ रम्य ।। संभवतः इस ग्रन्थ का निर्माण राजगढ़ में ही हुआ।
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