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मत्स्य प्रदेश को हिन्दी साहित्य को देन कोइल कलापी कूक कोकिल कुमति भई वानी सुखदानी 'हरिनाथ' सो मधुर रट । प्राजि हौं गई ही अली जमुना भरन घट
गुंज्झि पाए मौर वंसीवट के निकट तट ।। प्रेमविता
भूषन न धारौ प्रेम नेमउ न पारौ तऊ
स्यामरे सलौने जू के नैनन बसी रही। सामान्या कलहंतरिता
छायो नंदलाल कर लीन्हें गुंज माल भटू बदन विसाल सुष जाल हाल पेषौ मैं । जोरि जोरि दीठि रस रासि प्रेम पगि पगि लगि लगि बाल चतुराई नेम लेषौ मैं ॥ कवि हरिनाथ मनुहारि के मनाइ हारी मानों ना मनाए तै हठीली हठ पेषौं मैं । परे मन सोचन सकोचन करते अब ,
गए जब लाल तब कहै चहै देषौं मैं ।। संगी-दसा का कवित्त
बैठी रंगमहल लुनाई भरी लाडली सौ सीसा के महल सेज सुमन गुलाब की। पानदान पीकदान अतर गुलाबदान लीन्हे मन भूषन जराउ जेब छाव की । कवि हरिनाथ साथ रंभा सी रुचिर सषी चंदमुषी चतुर चलाई चित चाव की । श्राव की न दाव की पादकी परषि देषौ
भाव मै न श्रावै छवि प्राब महताब की । ये कवि महोदय छविनाथजी द्वारा दीक्षित किये गए थे
दीक्षित कवि छविनाथ के, कवि हरनाथ विचारि।
ग्रंथ रचौ कवि सुष सदन, भाषा रस निरधारि ।। यह एक बड़ा सुखद प्रसंग है कि इनके एक प्रकास' के पाने पर भी पुस्तक का निर्माण-काल, १८८८ वि०,' मिल गया है। साथ ही विनयसिंहजी का राज्य
१ संवत् वसु वसु वसु ससी चैत्र पक्ष बुधवार ।
वरनो विनय प्रकास में समुझो मती उदार ।। यह किंचित आश्चर्य का विषय है कि एक प्रकास के अंत में ही संवत् दे दिया गया है । हस्तलिखित प्रतिमें १८८६ संवत् दिया गया है। संभवतः यह इस प्रति को लिखने का समय है।
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