________________
७४
अध्याय २ - रीति-काव्य
काल सं० १८७१-१६१४ था अतएव पुस्तक के निर्माण-काल में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं रह जाता। इसमें संदेह नहीं कि इन महानुभाव की भाषा बहुत मजी हुई है और कविता में बड़ा सरस प्रवाह है। अनेक प्रकरणों पर जो परिभाषा तथा उदाहरण दिये हैं वे परम्परागत हैं, कोई विशेष प्रतिभासंपन्न प्रणाली दृष्टिगत नहीं होती।
अन्यत्र वर्णन के अनुसार यह स्पष्ट है कि महाराजा बलवंतसिंह' के समय में काव्य-संबंधी बहुत कार्य हुआ । रीति-काव्य की ओर भी इनके समय के कवियों ने ध्यान दिया और कुछ मौलिक रचनाएँ हमारी खोज में उपलब्ध
१. अलंकार मंजरी - कवि राम कृत सं. १८६७ २. छंद सार - कवि राम कृत ३. शृंगार तिलक - 'वृजचंद'
__सं. १८६५ ४. व्रजेन्द्र विनोद मोतीराम सं. १८८५ ५. रस कल्लोल जुगल कवि ६. सिखनख
रसानन्द
सं. १८६३ ७. व्रजेन्द्र विलास - रसानन्द सं. १८६५ १. अलंकार मंजरी- इसमें २८ पत्र हैं और श्री सवाई बलवंतसिंहजी के लिए लिखी गई है। अलंकार मंजरी के अंतर्गत अलंकारों की संख्या काफी है । एक-दो उदाहरण देखिए१. अप्रस्तुति प्रसंसा (अप्रस्तुत प्रशंसा)
जहं वरणे कवि और कुं, बात और पै डारि ।
तहां कहत हैं सुकवि नर, अप्रस्तुति लंकार ।। यथा- ना बरसे घरसै वृथा रे, घंन क्यों चहु पोर ।
तरसै जग हरस्यो फिरै, तू सठ निपट कठोर ।। अन्यच्च कवित्त
भूल्यौ फिरै चतुर नरेसन को भ्रम पाय . आज नृप ताइ के विलासी बासी प्रौन हैं ।
बलवंतसिंहजी का राज्य-काल १८८२-१९०६ वि० माना जाता है। इनके पिता बलदेवसिंहजी तो स्वयं कवि थे और अनेक कवि उनके दरबार में पाश्रय पाते थे। बलदेवसिंहजी का राज्य
काल केवल तीन वर्ष रहा था। २ 'इति श्री महाराजाधिराज श्री सवाई बलवंतसिंह हेतवे राम कवि विरचिते अलंकार मंजरी
समाप्तं मिती माघ वदी १२ संवत १८९७ वि०'।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org