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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन कविता की दृष्टि से 'लज्जा लक्षन' भी
गौने की जामिनि सौंने की बेलि सी, सौंहनी भाँति सुहाग सौं सानी। सौंहनी सौं करु षीनी विसास दे, 'भोगियलाल' पिया ढिंग पानी ॥ बांह गहै बड़ी लाज मैं अंग, सकौरि के भौंह मरौरति तानी ।
नैन चुराइ दुराइ के अनन, इंद्रबधू ज्यौं बधू सकुचानी । शृंगारमाधुरी तथा अलंकारकलानिधि दोनों रोतिग्रंथ हैं। इन पुस्तकों का जो भाग मिल सका उससे इन पुस्तकों में रीति-विषय-प्रतिपादन को उत्कृष्ट प्रणाली का आभास मिलता है। इसमें संदेह नहीं कि दूसरो पुस्तक के अप्राप्त प्रकरणों में अलंकार का भी सुन्दर वर्णन होगा, क्योंकि बिना इस प्रसंग के इस पुस्तक के नाम की सार्थकता प्रतिपादित नहीं होती। जो अंश प्राप्त हुया है उसके आधार पर ही हम कह सकते हैं कि कवि ने काव्य के उपयोगी सभी अंगों का विश्लेषण किया है ।
अलवर के राजाओं में 'बख्तावरसिंह' न केवल उदार आश्रयदाता थे वरन् स्वयं कवि थे और कवियों का बहुत सम्मान करते थे। इनके दरबार के एक कवि भोगीलाल ने 'वषतविलास' नाम का एक लक्षण-ग्रंथ संवत् १८५६ में लिख कर समाप्त किया। इस पुस्तक में नौ विलास हैं -----
१. प्रथम विलास राजवंस कविवंस वर्णन मंगलारंभ आदि छंद सं०४० २. द्वितीय विलास स्थायी भाव ३. तृतीय विलास विभाव ४. चतुर्थ विलास अनुभाव ५. पंचम विलास सात्विक ६. षष्ठ विलास संचारी भाव ७. सप्तम विलास नवरस सुरूप चतुर्वत्ति
, १४२ ८. अष्टम विलास नायक वर्णन ६. नवम विलास नायिका वर्णन
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५ महाराव सवाई बख्तावरसिंहजी संवत् १८४७ से १८७१ वि० तक अलवर के राजा रहे ।
ये बड़े बुद्धिमान और राजनीतिज्ञ थे। दिल्ली के बादशाह शाहपालम तथा जैपुर के नरेश इन्हें बहुत मानते थे। ये बड़े गुण-ग्राहक थे और दूर-दूर के विद्वान इनके दरबार
में आते थे। २ मंगलाचरण से अनेक बातों का पता लगता है, जैसे -
१ आश्रयदाता का नामसुर नर बानी पंथ पढि वरनों ग्रन्थ विसाल । पढ़ि प्रसन्न है है नृपति वषतावर भूपाल ।।
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