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अध्याय २ - रीति - काव्य जो कलाएं मिलीं वे इस प्रकार हैंपंचमी कला - रस ध्वनि निरूपणं । षष्टम कला - ध्वनि भेद निरूपरणं । सप्तम कला - गुणीभूत व्यंग्य निरूपणं । अष्टम कला – शब्दार्थ चित्र काव्योद्देशोनाम । नवमी कला - गुण निरूपणं ।
नवम कला को प्राचीन मत के अनुसार गुण निरूपण कहा है । इन प्रकरणों के अंतर्गत प्राप्त सामग्री को पढ़ कर यह स्पष्ट विदित होता है
१. यह अंश, काव्यगुणों से पूर्ण, कविता की आत्मा से संबंधित है। २. रस और ध्वनि का प्रसंग साथ-साथ लिया गया है। ३. संस्कृत के रीति ग्रन्थों की परंपरा के अनुसार ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य
तथा चित्र काव्य आदि प्रसंग लिए गए हैं। इसी प्रकार गुण का निरूपण भी। इस संबंध में एक बहुत ही गौरवपूर्ण बात यह है कि प्रतापसिंह के इन दोनों कविराजों ने काव्य की आत्मा का विश्लेषण और विवेचन करने की
ओर बहुत ध्यान दिया। नायक-नायिका भेद तथा शृगारी कविता से हो अपने को सीमित नहीं रखा। यही कारण है कि इन कवियों का नाम बिना किसो संकोच के हम आचार्य कोटि में रख सकते हैं। इस पुस्तक में कवि ने अपने उपनाम 'लाल' का भी प्रयोग किया है
कवि लाल कहत गोविंद सुनहु, भोगिय लाल भुवाल भुव ।
तुब सप्त दीप तत आजु सुनि, एकिति कित्त प्रताप हुव ।। नवम कला के अंत में कवि अपना नाम 'श्री कृष्ण भद्रदेव' कहता है और पंचम कला के अंत में 'श्री कृष्ण कवि लाल निधि' कहता है । इसका अभिप्राय यह है कि कवि अपने नाम तथा उपनामों के प्रयोग से स्वयं ही बहुत कुछ भ्रम उत्पन्न करता है । इन बहुत से नाम और उपनामों को ध्यान से देखने के पश्चात ही इन सब नामों की एकता के संबंध में ध्यान गया। गुणीभूत व्यंग्य का निरूपण देखिए
प्रगट अपर को अंग अरु, वाच्यहि पोषक होइ । कष्टगम्य संदिग्ध अरु, व्यंग्य वाक्य सम कोइ ।। काकु गम्य वाच्य अरु, आठ हौंहि ए भेद । उदाहरण अब बरनिये, सुनत जात मन षेद ।।
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