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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
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त्वमेव नित्य मंगला सुसिद्धि निद्धि दायिनी । त्वमेव दीप ज्योति षंड मंडलेश रायिनी ॥ त्वमेव चंड मुंड से षण्ड ब्रह्म षंडिनी । त्वमेव वा वादिनी सुबुद्धि नित्य दायिनी ॥ सूरजमल का यश सुन कर ये कविवर उनके पास श्राये
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श्री जदुवंस सुजान बली रतनाकर से गुन चौदह पाये । कीरति हू सुनि के शिवराम सु सूरजमल्ल को देखने आये ॥ अपने संबंध में लिखते हैं
सकुहाबाद परिगन खरी दषिन दिसा बषानौं । पंच कोस तहि तें पारोली जमुना तट ग्रह मानौं । तहां वसत शिवराम कवीश्वर धर्म कर्म गुन जेता । आदि अनादि होत हैं प्राये सतजुग द्वापर त्रेता ॥ नगर कुम्हेंर जानि मथुरा ढिंग, सूरजमल महाराजा । नवधा भक्ति राग रस बरन्यो, सुनो तुम्हारे काजा ॥ धर्म कर्म सों सदा रहो तुम, प्रेम प्रीति हरि साजा । कवि शिवराम कहत गुन बरने, उदधि पार जस बाजा ।। पुस्तक में कवि ने अपने वंश का वर्णन भी के दरबार में इनके वंशजों का मान था । वजीर भी था ।
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साहितसाहि अलावदीं, दिल्लीपति रनवीर । बोलि कहीजं सर्म सों, तुम वजीर गंभीर ॥ भुज प्रचंड नव खंड तहि, बढ्यौ वजीर प्रताप । करी कृपा तब साहिजू, दई हाथ की छाप ॥
यह पुस्तक कुम्हेर में लिखी गई, इसका भी प्रमाण है । उन दिनों सूरजमलजी भी कुम्हेर में ही रहते थे । '
सूरजमल्ल सुजान कौ, पुर कुम्हेर शुभथान ।
कछु मिश्रित वर्णन करचौ, राजभोग प्रबजान ॥ क - यौन
इस ग्रंथ का प्रारंभ समय संवत् १७३५ वि० है ।
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मथुरा से २२ मील की दूरी पर ।
किया है । संभवत: अलाउद्दीन और उनमें से कोई बादशाह का
२ 'र' का मिलाना देखें "चौ" !
संवत् सत्रह से बरस, अरु पैंतीस बषान । माघ मास सित अष्टमी, बार बरनि गुर पानि ॥
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