________________
मत्स्य प्रदेश को हिन्दी साहित्य को देन
२ कविकुल वरननं, ३ गुरु लघु गनागन मात्रा वरन प्रस्तार नष्ट उदष्ट मेरु मर्कटी
पताका वरननं, ४ मात्रवलि वरननं, ५ वर्ण वृत्य, ६ सब्दार्थ, ७ ध्वनि भेद रस लछनं रंग स्वामी, ८ स्वकीया भेद, ६ परकीया सामान्या, १० मानमोचन वरनन, ११ कृष्णाभिसारिका, १२ उत्तमादि नाइका, १३ नाइका दर्सन दृष्टानुराग चेष्टा, १४ हाव वरननं, १५ दसा वरननं, १६ रस ध्वनि, १७ असंलक्ष्यक्रम व्यंगि ध्वनि, १८ ध्वनि, १६ मध्यम काव्य गुनीभूत व्यंगि, २० काव्य दोष वरननं, २१ काव्य गुण अलंकार वरननं,
२२ अर्थालंकार संसृष्ट संकर अलंकार वरननं, उस समय की प्रचलित पद्धति के अनुसार इन बाईस तरंगों में काव्य के सम्पूर्ण अंगों का विवेचन किया गया है। तरंग पाठ से पन्द्रह तक नायिका भेद से संबंधित हैं। पिछली ६ तरंगें विशेष रूप से दृष्टव्य हैं क्योंकि इनमें काव्यप्रकाश आदि ग्रन्थों की छाया दिखाई देती है। हमारी खोज में इस ग्रन्थ की अनेक हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध हुईं जिनसे पता लगता है कि यह ग्रन्थ काफी प्रचलित था।
ग्रन्थ का प्रारम्भ इस प्रकार किया गया है
"श्री गणेशाय नमः । अथ रसपियूषनिधि लिष्यते । छप्पय
सिंधुर बदन अनंद चंद सिंदूर भाल धर । एक दंत दुतिवंत बुद्धि निधि अष्ट सिद्धिवर ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org