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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
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राज्य इधर उधर से छीन-झपट कर स्थापित किया। कहा जाता है
अष्टादस बत्तीस में, अरिसिर ढोल बजाय ।
महाराज परतापसिंह, गढ़ जीते सब धाय ।।१ धौलपुर और करौली की गाथा इतनी विकट नहीं है । इनके वर्तमान स्वरूप को बनाने में अंग्रेजों का हाथ रहा । करौली को १८१७ ई० में मराठों से लेकर करौली के राजाओं को दे दिया, और इसी प्रकार सन् १८०६ में धौलपुर का राज्य महाराज कीरतसिंह को दिया गया। इस प्रकार मत्स्य के राज्यों का अाधुनिक निर्माण सन् १७५० से १८२० के अंतर्गत हुआ और इस काल की साहित्यिक चेतना भी उसी प्रवृत्ति के अनुरूप रहो । सन् १८२० से १६०० तक का समय अपेक्षाकृत शान्ति का था और इसमें अनेक प्रकार के काव्य-साहित्य की रचना हुई। साहित्य-सृजन की दृष्टि से यह प्रान्त बहुत महत्वपूर्ण है। अनुसंधान में मिली सामग्री के आधार पर तथा पुराने जानकार व्यक्तियों से वार्तालाप करने के उपरान्त मेरी यह धारणा है कि यहां का साहित्यिक वातावरण बहुत हो जागरूक रहा । यद्यपि यहां के राजाओं को निरंतर युद्ध करने पड़ते थे, किन्तु कवि लोग भी अपना काम बरावर करते रहते थे। सूरजमल और जवाहरसिंह के समय में भी, जब इन राजाओं को इतिहास-प्रसिद्ध युद्धों में भाग लेना पड़ा, काव्य-रचना यथेष्ट मात्रा में हुई। कुछ राजा तो स्वभाव से विद्याव्यसनी थे और उनकी शक्ति तथा धन का सदुपयोग साहित्य की अभिवृद्धि में होता था । उदाहरण के लिए भरतपुर के एक राजा बलवन्तसिंहजी को हो लीजिए ।२ इनके समय में साहित्य के विविध अंगों को पूर्ति हुई। अनेक पुस्तकों के अनुवाद हुए। बहुत-सी पुस्तकें लिपिवद्ध की गई। कम से कम २५-३० साहित्यकारों के नाम प्राप्त होते हैं -
१ महाराज बलवंतसिंह स्वयं. २ श्रीधरानन्द रीतिकार. ३ बलदेव, खण्डेलवाल वैश्य-विचित्र-रामायण के रचयिता. ४ गणेश-विवाह विनोदकार. ५ रामकवि-रीति के सम्पूर्ण विषयों के लेखक. ६ लक्ष्मीनारायण-गंगालहरी. ७ जुगल कवि-रसकरुलोल. ८ वैद्यनाथ-विक्रम-पंचदण्ड-कथा. ९ रूपराम-ज्योतिप
१ बहुत समय तक अलवर का राज-संकेत- 'गढ़ जीते सब धाय' ही रहा। कुछ ही वर्षों . पूर्व महाराज जयसिंहजी ने इसे 'प्रात्मानं सततं विद्धि' में परिवर्तित किया। ३ इनका समय सन् १८२६ से १८५३ तक है। ३ स्व० पंडित मयाशंकर याज्ञिक की खोज में भी इस समय के बहुत-से कवियों के नाम
दिये गये हैं।
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