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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
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दोनों ही भरतपुर से भयभीत रहते थ
(अ) भेजी फोरि पटक पछार. षात षंभन ते
रेजी अंगरेजन की रोवै कलकत्ता में ।' (प्रा) हल्ला में हारेंगे फिरंगी हजार भांति
जालिम जटा के कटा करि डारेंगे।' (इ) तेगन तें तोड डारे मूड अंगरेजन के
परे रहे खेत में भिखारी के से कूलरा । जब भरतपुर के जाट अंग्रेजों से इस प्रकार का आतंकमय व्यवहार कर रहे थे तब
माचोरी को राव सो तौ जग में जनानों भेष
करि पहरे कर चूडौ अनबट घूघरा । इसमें संदेह नहीं, यह अतिशयोक्तिपूर्ण कविता है, क्योंकि इसमें उदयपुर, जयपुर को भी ऐसा ही कहा है
चौके द्रगपाल छत्र धारी महिमंडल के
जैपुर उदैपुर उठाय प्रायो लूगरा ।' अलवर के साहित्य में गंभीरता की गरिमा है। भरतपुर का काव्य उग्रता से चमत्कृत है। इसका कारण दोनों स्थानों का वातावरण और परिस्थिति भी है। वैसे अलवर का राज्य महाराजा प्रतापसिंह ने भरतपुर से ही छीना था और युद्ध में भी करारी हार पहले ही दे चुके थे, जब प्रतापसिंह जयपुर सेना के नायक थे। किन्तु भरतपुर में कुछ कारण ऐसे बने रहते थे कि कवियों की अपनी वाक्प्रतिभा को वीर-रस से संबंधित करने के अवसर मिल ही जाते थे ।
इस अनुसंधान का कार्य अनेक स्थानों में हुआ है, जैसे-सार्वजनिक पुस्तकालय, राजारों के विशाल भवन, मंदिरों के जगमोहन, पुराने पंडितों की बैठकें, राजगढ़ और डीग के खंडहर, नगर और डहरा जैसे छोटे गांव, मथुरा, आगरा जैसे बड़े नगर, पुराने क्षतिग्रस्त मंदिर, यमुना का तट, कुसुम-सरोवर तथा उसके पास की छत्रियां, वृन्दावन की कुजें, किलों के कुछ भग्नावशेष, राजकीय संग्रहालय, बारहठों के सामान्य द्वार, पंसारियों की रद्दी, दीमक लगे बस्ते, वेदपाठी ब्राह्मणों के चरण, गिरिराज की पर्वत-शृखलाएँ आदि। इस कार्य के सम्पादन में बहुत-से व्यक्तियों का सहयोग रहा जिनमें चारों राज्य के नरेश, वहां के साहित्यकार, क्यूरेटर, पुस्तकालयाध्यक्ष, राज कर्मचारी आदि सम्मिलित हैं। अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि लोगों को कुछ ऐसी मनोवृत्ति है कि
१ 'परसिद्ध' कवि द्वारा।
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