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मत्स्य-प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
अतएव रचना में गुणों का प्रयोग और दोषों का परिहार होना चाहिए। गुण और दोषों का विवेचन हिन्दी काव्य-शास्त्रियों ने भी किया। कुछ ग्रंथ तो केवल इसी प्रसग को लेकर लिखे गए। हमारी खोज में इस प्रकार के हस्तलिखित ग्रन्थ भी प्राप्त हुए।' इस प्रकार के ग्रन्थों में अन्य प्रकरणों के साथ गुण और दोषों पर विशेष रूप से लिखा गया है।
४. वक्रोक्ति-सम्प्रदाय-इस प्रसंग में कुन्तक का नाम उल्लेखनीय है। उनके ग्रन्थ 'वक्रोक्ति जीवित' में वक्रोक्ति को काव्य का प्राण माना गया है। उन्होंने वक्रोक्ति को 'कथन को विचित्रता'२ कहा है। यह वक्रता वर्ण, पद, वाक्य, प्रबंध आदि में हो सकती है, अतएव केवल वक्रोक्ति अलंकार हो वक्रोक्ति' का प्रतिपादक नहीं। क्रोचे का अभिव्यंजनावाद भी इससे मिलता-जुलता है। वास्तव में वोक्ति अभिव्यंजना को एक प्रणाली है। इसे काव्य को प्रात्मा मानने में संकोच होता है । कुछ विद्वानों के मतानुसार तो इसमें केवल वाक्-वैचित्र्य हो है। इससे मन को एक हलकी-सी प्रसन्नता मिलती है, हृदय को गम्भीर वृत्तियों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। वक्रोक्ति के बहुत-से उदाहरण मत्स्य-प्रदेश में उपलब्ध 'भ्रमर गीत' और 'दानलीला' आदि में पाये जाते हैं।
५. ध्वनि-सम्प्रदाय-इस सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा ध्वन्यालोक के रचयिता यानन्दवर्द्धन द्वारा हुई । उनका कहना था--'काव्यस्यात्मा ध्वनिः' । काव्य की आत्मा ध्वनि है तथा काव्य का वास्तविक सौंदर्य व्यंग्यार्थ का होना है। इस सम्प्रदाय के आचार्यों ने, जिनमें काव्यप्रकाश के लेखक मम्मट का नाम भी शामिल किया जा सकता है, काव्य का वर्गीकरण ध्वनि के आधार पर ही किया। मम्मट ने बताया कि काव्य तीन प्रकार का होता है
१. ध्वनि-काव्य, २. गुणीभूत व्यंग्य, तथा ३. चित्र । इन प्राचार्यों ने ध्वनि में रस का भी समावेश किया और 'रस-ध्वनि' को सर्वश्रष्ठ माना । कुछ विद्वान इसी आधार पर ध्वनि-सिद्धांत को रस के अंतर्गत
१ रसानन्द-'वृजेन्द्र विलास'। २ 'वैदग्ध्यभंगी भरिणति'। 3 'एसथैटिक्स-क्रोचे'। ४ ध्वन्यालोक १-१।
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