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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
'इक प्रीति श्री हरदेव सौं.........'
सूरजमल की छत्री में भी हरदेवजी के मन्दिर का हैि । कुछ समय उपरान्त ऐसा हुया कि राजा ने लड़ाई के लिए गौसाईजो को भो कहा । 'गौसाई' लड़ाई पर कैसे जाते ? बैरागी तो तैयार थे हो, अतएव राज्य के गुरु बैरागी हो गये और श्री लक्ष्मणजी की मानता शुरू हुई। पहले राज्य के झंडे के नीचे 'गोकुलेन्दु की जय' लिखा जाता था। पिछले महाराज ने राज्य-चिन्ह के नीचे 'लक्ष्मणजी सहाय' के स्थान पर 'गोकुलेन्दुर्जयति' लिखवाया था। इसे पुनः बदल कर 'लक्ष्मणजी सहाय' कर दिया गया है। राजा, ब्राह्मण, वैश्य, कायस्थ सभी धर्म की मर्यादा का निर्वाह करते थे। पढ़ने-लिखने का स्तर बहुत नीचा था। फिर भी कुछ धनी व्यक्ति समाज में अपने पढ़ने के लिए हस्तलिखित प्रतियां लिखवाते थे। इन प्रतियों की प्रतिष्ठा भी खूब थो। मेरे पूज्य पिताजी के पास जो हस्तलिखित प्रतियों का थोड़ा सा संग्रह था वह उनके पूजा वाले बस्ते में रहता था
और उन्हीं में से कुछ पुस्तकों का पाठ नित्य नियम में शामिल था। उस समय हस्त-लिखित प्रतियों का खूब प्रचलन था, मूल्य भो अाज के हिसाब से कुछ अधिक नहीं था। ४०, ५० पत्र की पुस्तक का मूल्य एक रुपया चार आना तथा १५०-२०० पत्रों को पुस्तक ४-५ रुपये की मिलती थी। भरतपर तोशाखाने की कुछ किताबों पर यह मूल्य लिखा हुअा पाया गया । हस्तलिखित पुस्तकें बहुत सुन्दरता के साथ लिखो जाती थीं। प्रारम्भ से अन्त तक एक ही प्रकार की लिपि रहती थी और स्याही में भी अन्तर नहीं पाता था। यदि किसी शब्द को काटने की आवश्यकता पड़ती थी तो यह कार्य 'हरतार' लगा कर किया जाता था।
प्राप्त साहित्य में राजघरानों के अतिरिक्त सामान्य जन-जीवन के भी कुछ चिन्ह मिलते हैं । राजानों का कार्य युद्ध करना, शासन करना तथा कवियों को अाश्रय देना होता था । प्रजा को सर्वदा राजा के सुख-वैभव का ही ध्यान रखना पड़ता था। किन्तु राजा लोग समय-समय पर प्रजा को आमंत्रित करते थे। उत्सवों के अवसर पर बहुत भीड़ हो जाती थी और अनेक शुभ अवसरों पर दान, इनाम आदि भी दिये जाते थे । राज्य में ब्राह्मणों का सम्मान होता था और राज-कार्य में भी उनसे सहायता ली जाती थी। इनके अतिरिक्त कायस्थ, वैश्य आदि भी सेवा में लिए जाते थे और राजा इस बात का ध्यान रखते थे कि
' यह छत्री गोवर्द्धन में कुसुम सरोवर नामक स्थान पर है। २ उदाहरणार्थ 'हितोपदेश भाषा कलमी जिल्द समेत डेढ रुपया'।
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