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अध्याय १- पृष्ठभूमि
ग्रन्थों के लेखक. १० रसानन्द -- प्रसिद्ध कवि, अनेक ग्रन्थों के कर्ता. ११ देविया खवास - रसानन्द के सेवक, राजनीतिकार १२ बटुनाथ - रासपंचाध्यायी. १३ रामकृष्ण - दानलीला. १४ भोलानाथ कायस्थ - शंकरशरणः ( शिवपुराण का भाषानुवाद.) १५ ललिताप्रसाद - रामशरण ग्रन्थ १६ सेवाराम - नल-दमयन्ती चरित्र १७ गोपालसिंह - संग्रहकर्ता. १८ मोतीराम-नायिकाभेद पर पुस्तक. १६ मणिदेव - महाभारत के कुछ पर्वो के अनुवादकर्ता. २० ब्रजेस - स्फुट काव्य. २१ ब्रजचन्द – श्रृंगार तिलक. २२ ब्रजदूलह - पद रचयिता २३ पंगुकवि - कृष्णगायन. २४ देवीदास - सुधासागर २५ जीवाराम - प्रसिद्ध लिपि२६ चतुर्भुज मिश्र - ग्रलंकार- श्राभा. २७ गोपालसिंह ड्योढ़ीवानस्फुटपद. २८ 'लाल प्याल' के रचयिता ।
कार.
कला के अन्य अंगों की दृष्टि से हम कोई और विशेष बातें नहीं पाते । कुछ भवनों के निर्माण की बात पहले कही जा चुकी है। दरबारों में चित्रकार और संगीतज्ञ कुछ तो अवश्य थे ही, किन्तु उनको ख्याति इतनी नहीं हुई कि उनका कुछ विवरण दिया जा सके । अलवर तथा भरतपुर के म्यूजियमों में जो चित्र-संग्रह मिलते हैं उनसे इस दिशा में कुछ प्रकाश पड़ता है, परन्तु कह नहीं सकते कि यह केवल संग्रह - कार्य है अथवा राजदरबारों में किया गया यहीं के चित्रकारों का कृतिकलाप । यदि राजदरबारों में भी कार्य हुआ होगा तो उनकी संख्या बहुत कम रही होगी । ऐसा मालूम होता है कि इन संग्रहालयों में अधिक कार्य संग्रह का ही है। हाथीदांत पर नक्काशी का काम, पत्थर की कारीगरी, मिट्टी के बर्तन आदि यहां की दस्तकारी के सुन्दर नमूनों में देखे जा सकते हैं, किन्तु इनका युग धीरे-धीरे बीतता जा रहा है और ये उद्योग भी नष्ट होते जा रहे हैं । जीविकोपार्जन का प्रधान साधन कृषि रहा और दूसरा सरकारी नौकरी । नौकरी के बहाने बहुत से परिवारों का पालन हो जाता था । भरतपुर में एक पलटन 'बाईसी ' " कहलाती थी । कहा जाता है, इसमें किसी समय २२०० जवान थे । ये जवान बड़े विचित्र थे, जिनमें कुछ तो माता के उदर में बैठे हुए भी जवानी प्राप्त कर लेते थे, और कुछ अपने दाह-संस्कार के उपरान्त भी हाजरी पाते हुए अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। इनकी वेश-भूषा निराली थी- अंगरखा, पाजामा और लुक्केदार पगड़ी तथा कमर में बंधी तलवार । इनको कुछ कार्य भी नहीं करना पड़ता था । इनका नाम रजिस्टर में दर्ज हो जाता था और महिना समाप्त होने पर तनख्वाह मिल जाती थी । जनता की सामान्य प्रवृत्ति
' 'बाईस' शब्द जयपुर में भी बहुत प्रचलित रहा - महाराज प्रतापसिंहजी को अपने दरबार में सब तरह के गुणीजनों की बाईसी संग्रह करने का विशेष शौक था, जैसे - कवि बाईसी, वीर बाईसी, गंधर्व बाईसी आदि - कर्णकुतूहल ५-१६ ।
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