Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
अणुभागवित्तीय सामित्तं
१५.
मोह० ० उक्क० कस्स ? जेण दंसणमोहणीयं खवेंतेण अनंताणुबंधिचउक्कं विसंजोए तेण सव्वजहण्णो अणुभागो घादिदो अणुवसामिदचारित्तमोहणीयो तस्स उकस्सओ अणुभागो । [ अण्णस्स अणुक्कस्सो ] | सासण० मोह ० उक्क० कस्स ? जो उवसमसम्मादिsी उकस्साणुभागेण सह सासणं पडिवण्णो तस्स उक्कस्सा । अवरस्स अणुक्कस्सा | एवमुक्कस्ससामित्ताणुगमो समत्तो ।
२१. जहण पदं । दुविहो णिद्देसो - श्रघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० ज० अणुभागो कस्स ० अण्णदर० खवगस्सं चरिमसमय सकसायस्स । एवं मणुसतिय-- पंचिंदिय --- पंचिं० पज्ज०--तस तसपज्ज०- पंचमण - पंचवचि ० --- काय जोगिओरालिय० -- अवगदवेद ० - लोभक० -- आभिणि० --- मुद - ओहि 0-- १०- मणपज्ज०-०--संजद ०सुहुमसांपराय ० -- चक्खु ० - अचक्खु ० - ओहिदंस ० - सुक्कले ० - भवसि ० - सम्मादिहि ० खइय०सणि० - आहारिति ।
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कर्मका उत्कृष्ट अनुभाग जिसके होता है ? दर्शनमोहनीयकी क्षपणा और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करते समय जिस क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवने सबसे जघन्य अनुभागका घात किया है तथा चारित्रमोहनीयका उपशम नहीं किया है उसके उत्कृष्ट अनुभाग होता है और इसके सिवा अन्य क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवके अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है । सासादन सम्यग्दृष्टियों में मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? जो उपशमसम्यग्दृष्टि उत्कृष्ट अनुभाग के साथ सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुआ है उसके उत्कृष्ट अनुभाग होता है और अन्यके अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है ।
विशेषार्थ - यहां आभिनिबोधिकज्ञान आदि जिन मार्गणाओं में मिध्यात्व गुणस्थान से जाना सम्भव है उनमें मिथ्यात्व गुणस्थानसे ले जाकर उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति प्राप्त करनी चाहिए । और आहारक काययोग आदि जिन मार्गणाओं में मिथ्यात्व गुणस्थानसे जाना सम्भव नहीं है उनमें ऐसे जीवको ले जाना चाहिए जिसके तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागके साथ उस मार्गणा में जाना सम्भव हो। इसी प्रकार सर्वत्र उत्कृष्ट स्वामित्वका विचार करना चाहिए ।
इसप्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ ।
२१. अब जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ निर्देश और आदेश निर्देश । ओघ की अपेक्षा मोहनीय कर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? सकषाय क्षपकके अन्तिम समय में अर्थात् दसवें गुणस्थानके अन्त में मोहनीय कर्मका जघन्य अनुभाग होता है । इस प्रकार तीनों मनुष्य, पंचेन्द्रिय, पञ्च ेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, अपगतवेदी, लोभकषायवाले, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सूक्ष्मसाम्परायसंगत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और हारक जीवों में जानना चाहिये ।
१. लोभसंजलस्स जहरणयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? खवगस्स चरिमसमयसकसायिस्स ।' चू० सू० ज० ध०, अनु० वि० ।
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