Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

Previous | Next

Page 358
________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुअं ३२९ संखे०गुणा । असंखे०गुणवडिवि० असंखे०गुणा । अणंतगुणहाणिवि० असंखेगुणा । अणंतगुणवडिवि० असंखे०गुणा । अवहिदवि० संखेज्जगुणा । एवमणंताणु०चउक्क० । णवरि सव्वत्थोवा अवत्त विह० जीवा। अणंतभागहाणिविह० अणंतगुणा। सेसं तं चेव । सम्म०-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अणंतगुणहाणिवि० जीवा । अवत्त विहत्ति. असंखे०गुणा । अवहि विहत्ति० असंखे०गुणा । ५६८. आदेसेण णेरइएमु वावीसंपयडीणमोघं । अणंताणु० चउक्क० सव्वत्थोवा अवत्तविहत्तिया जीवा । अणंतभागहाणिवि० असंखे०गुणा। उवरि ओघं । सम्मत्त० ओघं । सम्मामि० सव्वत्थोवा अवत्तविहत्ति जीवा । अवहि०वि० असंखे०गुणा । एवं पढमपुढवि--पंचिं०तिरिक्ख--पंचिंतिरि०पज्ज.--देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारे त्ति । विदियादि जाव सत्तमित्ति पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी०-भवण०-वाणजोइसिए त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो। तिरिक्खा० ओघं । णवरि सम्मामि० जेरइयभंगो। पंचिं०तिरि०अपज० छब्बीसंपयडीणमोघं । [णवरि अणंताणु० मिच्छत्तभंगो। सम्मत्त०-सम्मामिच्छत्ताणं णत्थि अप्पाबहुअं, एयपदत्तादो। एवं मणुसअपज्ज। इनसे असंख्यातगुणवृद्धि विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तगुणहानि विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तगुणवृद्धि विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित विभक्तिवाले संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अल्पबहुत्व है। किन्तु इनमें अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव सबसे थाड़े हैं। इनसे अनन्तभागहानि वि अनन्तगुणे हैं। शेष पूर्ववत् जानना। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगणहानि विभक्ति वाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ६५६८. आदेशसे नारकियोंमें बाईस प्रकृतियोंका भङ्ग अोधके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अनन्तभागहानि विभक्तिवाले जीव असंख्य संख्यातगुण है। आगे ओघकी तरह भङ्ग है। सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग ओघकी तरह है। सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतियञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरे नरकसे लेकर सातवें पर्यन्त तथा पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चयानिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका भङ्ग नारकियों के समान है। पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग आघकी तरह है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है अर्थात् इनका अवक्तव्य पद नहीं होता। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि यहाँ उनका एक ही पद पाया जाता है। इसी प्रकार मनुष्य अपयोप्तकोंमें जानना चाहिए। ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438