Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए ठाणपरूवणा
३५३ गंतूण दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव चरिमगुणहाणि त्ति । तं जहा-अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तं णिसेगभागहारं विरलेदूण जहण्णवग्गणकम्मपदेसेसु समखंडं कादण दिएणेसु एक कस्स रूवस्स वग्गणाविसेसपमाणं पावदि । पुणो जेणेत्थ एगेगवग्गणविसेसो वग्गणं पडि हायमाणो गच्छदि तेण णिसेगभागहारस्स अद्धमत्तं गंतूण जहण्णवग्गणपदेसेहितो तदित्थवग्गणपदेसा दुगुणहीणा होति । पुणो पढमगुणहाणिपढमवग्गणभागहारेणेव विदियगुणहाणिपढमवग्गणापदेसेसु खंडिदेसु तत्थतणवग्गणविसेसो होदि । णवरि पढमगुणहाणिवग्गणविसेसादो विदियगुणहाणिवग्गणविसेसो दुगुणहीणो, पुव्विल्लविहज्जमाणदव्वं पेक्खिदूण संपहि विहज्जमाणदव्वस्स दुभागत्तादो । एत्थ वि भागहारस्स अद्धं गंतूण दुगुणहाणी होदि । एवं णेदव्वं जाव चरिमवग्गणे ति । अन्तिम गुणहानिक प्राप्त होने तक अवस्थित अध्वान जाने पर कर्मप्रदेश आधे आधे होते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है-अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण निषेकभागहारका विरलन करके उसके ऊपर जघन्य वर्गणाके कर्मप्रदेशोंके समान खण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति वर्गणाविशेषका प्रमाण प्राप्त होता है। यतः यहाँ पर वर्गणाके प्रति एक एक वर्गणाविशेष घटता जाता है अतः निषेकभागहारका
आधा प्रमाण जानेपर जघन्य वर्गणाके प्रदेशोंसे वहां पर स्थित वर्गणाके प्रदेश दूने हीन होते हैं। उसके बाद प्रथम गुणहानिकी प्रथम वर्गणाके भागहारसे ही दूसरी गुणहानिकी प्रथम वर्गणाके प्रदेशोंमें भाग देनेपर वहांका वर्गणाविशेष आता है। इतना विशेष है कि प्रथम गुणाहानिके वर्गणाविशेषसे दूसरी गणहानिका वर्गणाविशेष दूना हीन है, क्योंकि पहले जिस द्रव्यमें भाग दिया गया था उससे अब जिस द्रव्यमें भाग दिया गया है वह द्रव्य आधा है। यहां भी भागहारका आधा प्रमाण जानेपर दूनी हानि होती है । इस प्रकार अन्तिम वर्गणा पर्यन्त लेजाना चाहिए।
विशेषार्थ-सूक्ष्म निगोदिया जीवका जो जघन्य बन्धस्थान है उसके परमाणुओंका कथन करनेके लिए छह अनुयोगस्थान कहे हैं। उनमेंसे श्रोणि अनुयोगद्वारका कथन अंकसंदृष्टिसे इस प्रकार समझना चाहिए । अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण निषेकभागहारका प्रमाण १६ है और जघन्य वर्गणाके कर्मप्रदेशोंका परिमाण ५१२ है । निषेकभागहार १६ का विरलन करके उसके ऊपर जघन्य वर्गणाके कर्मप्रदेशोंके १६ खण्ड करके एक एकके ऊपर देनेसे एक एक रूपके प्रति वर्गणाविशेषका प्रमाण आता है । यथा३२ ३२ ३२ ३२. ३२ ३२ ३२ ३२ ३२ ३२ ३२ ३२ ३३ ३२ ३२ ३२ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ इसीको दूसरे प्रकारसे यूं कह सकते हैं कि जघन्य वर्गणाके कमप्रदेश ५१२ में निषेकभागहार १६ का भाग देनेसे ३२ लब्ध आता है और यही प्रत्येक वर्गणामें विशेष अर्थात चयका प्रमाण होता है । अर्थात् प्रत्येक वर्गणामें ३२, ३२ परमाणु कम होते जाते हैं। तथा निषेकभागहार १६ का आधा ८ होता है, अतः जब प्रत्येक वर्गणामें ३२, ३२ परमाणु कम होते जाते हैं तो आठ स्थान जानेपर आगेकी वर्गणामें जघन्य वर्गणाके कर्मप्रदेशोंसे आधे कर्मपरमाणु पाये जायेंगे यह स्वाभाविक ही है। जैसे ५१२, ४८०, ४४८, ४१६, ३८४, ३५२, ३२०, ३८८ ये आठ स्थान जानेपर २५६ कर्म परमाणु नवीं वर्गणामें आते हैं जो कि प्रथम वर्गणाके कर्मप्रदेशोंसे आधे है । जिस प्रकार प्रथम गणहानिकी प्रथम वर्गणा ५१२ में निषेकभागहार १६ का भाग देनेसे एक एक वर्गणाका ३२ चय आया था उसी प्रकार दूसरी गुणहानिकी प्रथम वर्गणाके कर्मपरमाणु २५६ में
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