Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 412
________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा ३८३ चत्तारि-पंच-छ-सत्त-अहकाणं रूवूणछट्ठाणसहियाणं हाणंतरफद्दयंतरादीणं परूवणाए कीरमाणाए बंधहाणभंगो। एवं चरिमुव्वंकमस्सिदृण एत्तियाणि चेव घादहाणाणि उप्पजंति, उक्कस्सविसोहिहाणप्पहुडि जाव जहण्णविसोहिहाणे ति ताव सव्वविसोहिहाणेहि चरिमुव्वंकं घादिय घादहाणाणमुप्पाइदत्तादो । पुणो उक्कस्सविसोहिहाणेण दुचरिमउव्वंके घादिदे हेढा पुग्विल्लसव्वजहण्णघादढाणादो हेहा अणंतभागहीणं होदूण अण्णं घादहाणमुप्पजदि । एत्थ हाणीए भागहारो रूवाहियसव्वजीवरासी। कुदो ? एगेण परिणामेण घादे संते वि उक्कस्सउव्वंकादो दुचरिमउव्वंकस्स रूवाहियसव्वजीवरासिणा खंडिदेगखंडपरिहाणिदंसणादो। पुणो दुचरिमविसोहिहाणेण दुचरिमअणुभागबंधटाणे घादिदे अण्णं घादहाणमणंतभागभहियं होदूण अपुणरुत्तमुप्पज्जदि । को एत्थ वडिभागहारो? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागो, कारणाणुरूवकज्जसिद्धीए णाइयत्तादो। अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणं व अणुभागधादझवसाणहाणाणं वडिभागहारो गुणगारो च किण्ण होदि ? ण, अणुभागवड्डिहेदुपरिणामाणं घादहेउपरिणामाणं च सरिसत्तविरोहादो । एदं संपहि समुप्पण्णाणुभागधादहाणमुवरिमपंतीए जहण्णघादट्टाणेण सरिसं ण होदि, पुव्विल्लजहण्णहाणाणं सव्वहै, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है। एक कम षट्स्थान सहित इन असंख्यात लोकप्रमाण उर्वक, चतुरङ्क, पञ्चाङ्क, षष्ठाङ्क, सप्ताङ्क और अष्टाङ्कोंके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर आदिका कथन करने पर उनका भङ्ग बन्धस्थानोंके समान है। इस प्रकार अन्तिम उर्वकके आश्रयसे इतने ही घातस्थान उत्पन्न होते हैं, क्योंकि उत्पन्न विशुद्धिस्थानसे लेकर जघन्य विशुद्धिस्थान तक सब विशुद्विस्थानोंसे अन्तिम उर्वकको घात कर घातस्थानोंकी उत्पत्ति की जाती है। पुनः उत्कृष्ट विशुद्विस्थानसे द्विचरम उर्वकका घात करने पर नीचे पहलेके सर्व जघन्य घातस्थानसे नीचे अनन्तभाग हीन दूसरा घातस्थान उत्पन्न होता है। यहां हानिका भागहार एक अधिक सर्व जीवराशि है, क्योंकि एक परिणामसे घात होने पर भी उत्कृष्ट उर्वकसे द्विचरम उर्वकमें एक अधिक सर्व जीवराशिका भाग देने पर जो एक खण्ड लब्ध आता है इतनी हानि देखी जाती है। सारांश थह है कि अन्तिम उर्वकसे द्विचरम उर्वक उतना हीन है इसलिये इस घातस्थानकी हानिका भागहार रूपाधिक सर्व जीवराशि रखा है। पुन: द्विचरम विशुद्धिस्थानसे द्विचरम अनुभागबन्धस्थानका घात करने पर अनन्तवां भाग अधिक अन्य अपुनरुक्त घातस्थान उत्पन्न होता है। शंका-यहां पर वृद्धिका भागहार कितना है ? समाधान अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण है, क्योंकि कारणके अनुरूप कार्यकी सिद्धिका होना उचित ही है। शंका-अनुभागघाताध्यवसायस्थानोंकी वृद्धिके भागहार और गुणकार अनुभाग बन्धाध्यवसायस्थानोंके भागहार और गुणकारके समान क्यों नहीं होते। समाधान-नहीं, क्योंकि अनुभागकी वृद्धिके कारणभूत परिणामोंके और अनुभागके घात के कारणभूत परिणामोंके समान होने में विरोध है। ___ यह इस समय उत्पन्न हुआ अनुभागघातस्थान ऊपरकी पंक्तिमें जघन्य घातस्थानके समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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