Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ण, तत्थ वि एदेणेव कमेण जोगहाणपरूवणाए कयत्तादो। जदि एवं तो एगजीवपदेसुक्कस्सजोगाविभागपडिच्छेदाणं जोगहाणसण्णा पावदि ति णासंकणिज्ज, कम्मक्रोधादो कम्मपदेसाणं व जीवादों जीवपदेसाणमपुधभावेणं सव्व जीवपदेसजोगाविभागपडिच्छेदाणमेगजोगटाणतं पडि विरोहाभावादो। कम्मक्रोधादो कम्मपदेसा पुधभूदा गत्थि ति सव्वे कम्मक्खंधाविभागपडिच्छेदे घेत्तण एगमणुभागहाणमिदि किण्ण वुच्चदे ? ण, कम्मखंधादो भेदं गच्छंताणं कारणवसेण संजोगमागयाणं परमाणूणं खंधेण सह एयत्तविरोहादो।
६०६. एदस्स विदियाणुभागहाणस्स पदेसरचणा पुव्वं व कायव्वा । किंतु चिराणसंतकम्मस्स पदेसविण्णासो वट्टमाणबंधपदेसविण्णासेण सरिसो ण होदि, उवरिमपक्खेवफद्दयाणं पढमफद्दयआदिवग्गणाए हेडिमवग्गणपदेसेहितो असंखेजगुणहीणपदेसत्तादो। अथवा सव्वत्थ गोवुच्छायारेणेव पदेसा चेहति, उक्कड्डिदपदेसाणं तत्थ मुण्णहाणे बज्झमाणपदेसेहि सह समयाविरोहेण विण्णासं करिय अवसेसपदेसाणं सव्वत्थ गोवुच्छायारेण विएणासविहाणादो।
६६१०. एवं विदियहाणपरूवणं काऊण संपहि तदियहाणपरूवणा कीरदे । समाधान-नहीं, क्योंकि वहां भी इसी क्रमसे योगस्थानका कथन किया है।
शंका-यदि ऐसा है तो एक जीवके एक प्रदेशमें होनेवाले उत्कृष्ट योगके अविभागप्रतिच्छेदोंकी भी योगस्थान संज्ञा प्राप्त होती है।
समाधान-ऐसी आशङ्का नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जैसे कर्मस्कन्धसे कर्मपरमाणु भिन्न हैं, वैसे जीवसे जीवके प्रदेश भिन्न नहीं हैं, अतः जीवके सब प्रदेशोंमें होनेवाले योगके अविभागप्रतिच्छेदोंका एक योगस्थान होने में कोई विरोध नहीं है।
शंका-कर्मस्कन्धसे कर्मप्रदेश भिन्न नहीं हैं, अत: कर्मस्कन्धके सब अविभागप्रतिच्छेदोंका एक अनुभागस्थान होता है ऐसा क्यों नहीं कहते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि कर्मप्रदेश कर्मस्कन्धसे भिन्न हैं किन्तु निमित्तके वशसे संयोगको प्राप्त हो गये हैं, अतः उनका स्कन्धके साथ अभेद नहीं हो सकता।
६०६. इस द्वितीय अनुभागस्थानकी प्रदेश रचना भी पहलेके समान करनी चाहिए, किन्तु जिस क्रमसे वर्तमानमें बंधनेवाले प्रदेशोंकी रचना होती है पहले के सत्तामें स्थित प्रदेशोंकी रचना उस क्रमसे नहीं होती, क्योंकि ऊपरके प्रक्षेप स्पर्धकोंके प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणामें अधस्तन वर्गणाके प्रदेशोंसे असंख्यातगुणे हीन प्रदेश पाये जाते हैं। अथवा सर्वत्र गोपुच्छके आकारसे ही प्रदेश स्थित रहते हैं, क्योंकि उत्कर्षणको प्राप्त हुए प्रदेशोंकी शून्य स्थानमें बंधनेवाले प्रदेशोंके साथ यथाविधि रचना करके बाकीके प्रदेशोंकी सर्वत्र गोपुच्छरूपसे ही स्थापना होनेका विधान है।
६६१०. इस प्रकार द्वितीय अनुभागस्थानका कथन करके अब तीसरे अनुभागस्थानका 1. ता. मा. प्रत्योः जीवदेसाणं पुधभावेण इति पाठः ।
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