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गा० २२. ]
अणुभागविहत्तीए द्वापरूवणा
वग्गणा-फद्दयववएसा चत्तारि वि कथं संगच्छते ? ण, एक्कम्मि जीवपयत्थे इंद-पुरंदरादिसाणमुवलंभादो । अप्पिदजीवम्मि द्विदपरमाणुपोग्गला विभागपडिच्छेदेहिंतो अहियत्तविवक्खाए एदेसिमेगपरमाणुधरिदा विभागपडिच्छेदाणमणुभागहाणसण्णा । सेसपरमाणुअविभागपडिच्छेदेहिंतो सरिसासरिसत्तविवक्खाहि विणा तम्हि चैव विवक्खिदे तस्सेव वग्गववसो । सरिसधणियविवक्खाए वग्गणववएसो । सव्वजीवेहि अनंतगुणमंतरिय अविभागपडिच्छेदुत्तरकमेण गंतूण पुणो सव्वजीवेहि अनंतगुणाविभागपडिच्छेदुल्लंघणपाओग्गत्तविवक्खाए तस्सेव फद्दयसण्णा त्ति । ण तत्थ चदुण्हं णामाणं पउत्ती विरुदे | जदि एक्कम्मि कम्मपरमाणुम्मि विद विभागपरिच्छेदाणं द्वाणसण्णा इच्छिज्जदि तो एकहि द्वाणे अनंताणि अणुभागद्वाणाणि होंति, अणंताणं सरिसधणियपरमाणूणं तत्थुवलंभादो त्ति ? ण, सत्तरिसागरोवमकोडा कोडिडिदिचरिमणिसेगम्मि अणंताणंतकम्मडिदिप्पसंगादो । एगपरमाणुद्विदीदो सेसपरमाणुद्विदीर्णं भेदाभावादो तत्थ अण्णासं हिदी मग्गहणं चे एत्थ वि तो क्खहि तेणेव कारणेण अण्णेसि मग्गहणमिदि किण घेपदे ? जदि एवं तो जोगस्स वि द्वाणपरूवणा एवं चेव किरण कीरदे ? वर्गणा और स्पर्धक ये चारों संज्ञाएँ कैसे घटित होती हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि एक ही जीव पदार्थमें इन्द्र और पुरन्दर आदि सज्ञाएँ पाई जाती हैं । उसी प्रकार उक्त संज्ञाएँ भी जाननी चाहिए । विवक्षित जीवमें स्थित पुद्गल परमाणुओं के अविभागप्रतिच्छेदों से अधिकपनेकी विवक्षा करनेपर एक परमाणुमें पाये जानेवाले इन विभागप्रतिच्छेदों की अनुभागस्थान संज्ञा है । शेष परमाणुओं के अविभागप्रतिच्छेदोंसे सदृशता और असदृशताकी विवक्षा न करके केवल उसी एक परमाणुकी विवक्षा करने पर उसीकी वर्ग संज्ञा है । सदृश धनवालोंकी विवक्षा करने पर उसकी वर्गणा संज्ञा है । प्रथम आदि स्पर्धककी अन्तिम वर्गणासे द्वितीयादि स्पर्धककी प्रथम वर्गणाका अन्तर विभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा सब जीवराशि अनन्तगुणा है । अतः सब जीवराशिसे अनन्तगुणे विभागप्रतिच्छेदों के उलंघन की योग्यताकी विवक्षा करनेपर उसकी स्पर्धक संज्ञा है । अतः एक परमाणुमें चारों संज्ञाओंकी प्रवृत्ति होने में कोई विरोध नहीं है ।
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शंका–यदि एक कर्मपरमाणु में स्थित अविभागप्रतिच्छेदोंकी स्थान संज्ञा मानते हो तो एक स्थानमें अनन्त अनुभागस्थान प्राप्त होते हैं, क्योंकि वहां समान अविभागप्रति च्छेदों के धारक अनन्त परमाणु पाये जाते हैं ।
समाधान- नहीं, क्योंकि ऐसा कहने पर सत्तर कोड़ीकोड़ी सागरकी स्थितिवाले अन्तिम निषेक में अनन्तानन्त कर्मस्थितियोंका प्रसंग प्राप्त होता है ।
शंका- एक परमाणुकी स्थिति से शेष परमाणुओं की स्थितिमें कोई भेद नहीं है, अत: वहां अन्य स्थितियोंका ग्रहण नहीं किया जाता ?
समाधान- तो यहां पर भी उसी कारण से अन्यका ग्रहण नहीं किया ऐसा क्यों नहीं मानते हो ।
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शंका- यदि ऐसा है तो योगस्थानका कथन भी इसी प्रकार क्यों नहीं करते ?
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