Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 401
________________ ३७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ अणंतभागब्भहियं, पुचिल्लपक्खेवफद्दयसलागाओ पेक्खिदूण एत्थतणपक्खेवफद्दयसलागाओ सरिसाओ, फद्दयंतराणं विसेसाहियत्तण्णहाणुववत्तीदो। एवं णेदव्वं जाव अणंतभागवड्डिहाणं कंडयस्स चरिमाणे त्ति । एदाणि अणुभागहाणाणि बंधेण विणा उक्कड्डणाए ण उप्पजति, बंधे अणुभागसंतसमाणे तत्तो ऊणे वा संते उक्कड्डिदफद्दयाणं संतफदएहिंतो अणंतभागब्भहियाणमणुवलंभादो । बंधादो उक्कड्डणादो च अणुभागहाणे णिप्पण्णे संते बंधादो चेव णिप्पण्णमिदि किमह वुच्चदे ? ण, उक्कड्डणाए बंधायत्ताए बंधसरूवाए बंधे चेव अंतब्भावादो। प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ पहलेके प्रक्षेपस्पर्धक शलाकाओंके बराबर हैं। यदि शलाकाएँ समान न होतीं तो पहलेके प्रक्षेप स्पर्धकान्तरसे इस स्थानका प्रक्षेप स्पर्धकान्तर अनन्तवें भागप्रमाण अधिक न होता। इस प्रकार काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धि स्थानोंके अन्तिम स्थान पर्यन्त स्थानोंकी उत्पत्तिका यह क्रम ले जाना चाहिए। ये अनुभागस्थान बंधके बिना उत्कर्षणके द्वारा नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि सत्तामें विद्यमान अनुभागके समान अथवा उससे कम बंधके होनेपर उत्कर्षित स्पधक सत्तामें विद्यमान स्पर्धकोंसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक नहीं पाये जाते हैं। शंका-अनुभागस्थानके बन्धसे और उत्कर्षणसे निष्पन्न होने पर वह बन्धसे ही निष्पन्न हुआ है ऐसा क्यों कहा जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि उत्कर्षण बंधके अधीन है और बंध स्वरूप है, अत: उसका बंधमें ही अन्तर्भाव होता है। विशेषार्थ-पहले जिस प्रकार जघन्य स्थानकी प्रदेश रचना कही है उसी प्रकार दूसरे अनुभागस्थानकी भी प्रदेशरचना समझनी चाहिये। किन्तु इतना विशेष है कि सत्तामें स्थित कर्मपरमाणुओंको छोड़ कर नवीन बन्धको प्राप्त हुए परमाणुओंकी प्रदेश रचना, जिन परमाणुओं में अनुभाग बढ़ाया गया है उन परमाणुओंके साथ कहनी चाहिये । किन्तु सत्ता में स्थित कर्मपरमाणुओंकी प्रदेशरचना नहीं होती, क्योंकि बन्धकालमें जिस क्रमसे उनकी रचना होती है, उत्कर्षण और अपकर्षणके होनेसे उस क्रमसे वे अवस्थित नहीं रह पाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि बन्धको प्राप्त हुए निवेकोंकी प्रदेशरचना तत्काल हो जाती है और वह गोपुच्छाकार रूपसे होती है, अर्थात् जैसे गायकी पूंछ क्रमसे घटती हुई होती है वैसे ही निषेकोंकी रचना भी एक एक चय घटते क्रमसे होती है। किन्तु यह रचना बराबर ऐसी ही नहीं बनी रहती, आगे जब उन निषेकोंमें अनुभाग घटता या बढ़ता है तो रचित निषेकोंके क्रममें व्यतिक्रम हो जाता है, अतः बन्धकालमें पहलेसे सत्तामें स्थित परमाणुओंकी निषेकरचनाका निषेध किया है और दोनोंमें अन्तर बतलाया है। अब इस दूसरे अनुभागस्थानके नवकबन्धकी प्रदेशरचनाको कहते हैं-समयप्रबद्धमें जघन्य अनुभागस्थानसे अधिक अनुभागवाले जितने परमाणु हों उनको पृथक् स्थापित करो और जघन्य स्थानके समान अनुभागवाले शेष सब परमाणुओंको लेकर उनकी रचना करो। रचना करने पर वे सब परमाणु जघन्य अनुभागस्थानकी जघन्य वर्गणसे लेकर उसीकी उत्कृष्ट वर्गणा पर्यन्त स्थित हो जाते हैं। उसके बाद अधिक अनुभागवाले परमाणुओंको लो, उनका प्रमाण अनन्त है उनमेंसे जघन्य प्रक्षेप स्पर्धक प्रमाण परमाणुओंको लेकर जघन्य स्थानके अन्तिम स्पर्धकके ऊपर उनकी स्थापना करो। ऐसा करनेसे प्रथम प्रक्षेप स्पर्धक उस्पन्न होता है। पुनः उनमेंसे द्वितीय स्पर्धकप्रमाण परमाणुओंको प्रथम प्रक्षेप स्पर्धकके ऊपर अन्तराल देकर स्थापित करनेसे द्वितीय स्पधक उत्पन्न होता है। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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