Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 402
________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा ३७३ प्रकार पुन: पुन: परमारण ओंको लेकर तब तक स्पर्धक रचना करनी चाहिये जब तक पृथक स्थापित किये गये परमाणु समाप्त हों। इस प्रकार दूसरे अनुभागस्थानकी स्पर्धक रचना जाननी चाहिये। यह अनन्तभागवृद्धियुक्त प्रथम स्थान है, अर्थात् जघन्य अनुभागस्थानको सर्व जीव राशिसे भाजित करके जो लब्ध आवे उतना अधिक है। इस दूसरे अनुभागस्थानको सर्व जीव राशिसे भाजित करके जो लब्ध आवे उसे दूसरे अनुभागस्थानमें जोड़ देनेसे तीसरा अनुभागस्थान होता है। जैसे अंकसंदृष्टिसे दूसरे अनुभागस्थानका प्रमाण ८१९२० आया था उसमें जीवराशिके कल्पित प्रमाण ४ से भाग देकर लब्ध २०४८० को जोड़ देनेसे तीसरे अनुभागस्थानका प्रमाण १०२४०० आता है, यह अनन्तभागवृद्धि युक्त दूसरा स्थान है। पहले के स्थानके अन्तरसे इस स्थानका अन्तर अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है। अर्थात् पहलेके स्थानका अन्तर ८१६२० - ६५५३६= १६३८४ है और इस स्थानका अन्तर १०२४०० - ८१६२० = २०४८० है । अत: पहलेके स्थानके अन्तरसे यदि अनन्तका प्रमाण ४ कल्पना किया जाय तो इस स्थानका अन्तर अनन्तवें भागप्रमाण अधिक होता है। तथा दूसरे अनुभागस्थानके प्रक्षेप स्पर्धकके अन्तरसे इस तीसरे अनुभागस्थानके प्रक्षेप स्पर्धकका अन्तर भी अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है, क्योंकि पहलेकी विभज्यमान राशिसे इस स्थानकी विभज्यमान राशि अनन्त भागप्रमाण अधिक है। अर्थात् दूसरे अनुभागस्थानकी विभक्त की जानेवाली राशिका प्रमाण अंकसंदृष्टिसे ८१६२० है और इस तीसरे स्थानकी विभक्त की जानेवाली राशिका प्रमाण १०२४०० है, अतः उससे इसका प्रमाण अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है। तथा प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ दोनों स्थानोंकी बराबर बराबर हैं, क्योंकि सभी अनन्तभागवृद्धि युक्त स्थानोंकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ परस्परमें समान हैं। असंख्यातभागवृद्धि युक्त स्थानोंकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ परस्परमें समान हैं। संख्यातभागवृद्धि युक्त स्थानोंकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ भी परस्परमें समान है। इसी प्रकार संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ भी परस्परमें समान जाननी चाहिए। यदि स्पर्धक शलाकाओंको परस्परमें समान न माना जायगा तो अनन्तवें भागप्रमाण अधिकपना नहीं बन सकेगा। इसका खुलासा इस प्रकार है-रूपाधिक सर्व जीवराशिसे अपने अनन्तरवर्ती नीचेके अनन्तभागवृद्धि युक्त स्थानमें भाग देनेपर स्थानका अन्तर आता है। उस अन्तरको स्पर्धक शलाकाओंसे भाजित करने पर स्पर्धकान्तर आता है । इसी प्रकार उस स्थानमें समस्त जीवराशिसे भाग देनेपर ऊपरके स्थानका अन्तर आता है। उस स्थानान्तरमें ऊपरकी स्पर्धक शलाकाओंसे भाग देनेपर ऊपरका स्पर्धकान्तर आता है। जैसे तीसरे स्थानके अनन्तरवर्ती नीचेके दूसरे स्थानका प्रमाण अंकसंदृष्टिसे ८१६२० है। उसमें एक अधिक जीवराशिके कल्पित प्रमाण ४+१=५ का भाग देनेपर १६३८४ आता है। यह नीचेका स्थानान्तर है। अर्थात् जघन्य अनुभागस्थान ६५५३६ में और दूसरे अनुभागस्थान ८१६२० में १६३८४ का अन्तर है। इस अन्तरमें कल्पित स्पर्धक शलाका ४ का भाग देनेपर ४-९६ स्पर्धकान्तर आता है। तथा उसी दूसरे स्थान ८१९२० में सर्व जीवराशि ४ का भाग देनेसे २०४८० ऊपरके स्थानान्तरका प्रमाण आता है। अर्थात् तीसरे अनुभागस्थान १०२४०० और दूसरे अनुभागस्थान ८१६२० में २०४८० का अन्तर है। इसी २०४८० में स्पर्धक शलाका ४ का भाग देनेसे ५१२० ऊपरके स्पर्धकान्तरका प्रमाण आता है। यह स्पर्धकान्तर पहलेके स्पर्धकान्तर ४०९६ से अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है, क्योंकि ४०९६ में अनन्तके कल्पित प्रमाण ४ का भाग देनेसे १०२४ लब्ध आता है। इस लब्धको ४०९६+१०२४ जोड़नेसे ५१२० स्पर्धकान्तरका प्रमाण होता है। अब पहलेकी स्पर्धक शलाकासे ऊपरके स्थानकी स्पर्धक शलाकाएँ यदि एक अधिक हों तो भी यत: पहलेके भागहारसे ऊपरके स्थानके स्पर्धकान्तरका भागहार अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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