Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

Previous | Next

Page 407
________________ ३७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ प्पत्तीए अभावादो त्ति ? सच्चमेदं, किंतु ण चिराणाणुभागो एत्थ घेप्पदि, वडिणिमित्ताणुभागेण विणा वडिअणुभागेण चेव एत्थ अहियारादो। तं पि कुदो णव्वदे ? वड़ि पडुच्च भागहार-गुणगारपरूवणण्णहाणुववत्तीदो । हेहिमअणंतभागवडिहाणंतरादो असंखेज्जगुणवडिहाणंतरमणंतगुणं सेसवडिहाणंतरेहितो असंखे०गुणं । अणंतभागवडिपक्खेवफद्दयंतरादो एदस्स फद्दयंतरमणंतगुणं । ६१५. एदमसंखेज्जगुणवडिहाणं सव्वजीवेहि खंडिय जं लद्धं तम्मि तत्थेव पक्वित्ते उवरिममणंतभागवडिहाणं होदि । हेहिमअसंखेज्जगुणवडिहाणंतरादो एदस्स हाणंतरमणंतगुणहीणं । तस्स पक्खेवफदयंतरादो वि एदस्स फद्दयंतरमणंतगुणहीणं । असंखेजगुणवड्डीए हेटिमअणंतभागवडिकंडयस्स हाणंतरादो एदं द्वाणंतरमसंखे०गुणं । तत्थतणफद्दयंतरादो वि एत्थतणफद्दयंतरमसंखेज्जगुणं । एवं जाणिदूण समयाविरोहेण णेदव्वं जाव कंडयमेत्ताणि असंखेज्जगुणवडिहाणाणि समुप्पण्णाणि त्ति । ६१६. पुणो अवरमेगमसंखेज्जगुणवडिविसयं गंतूण जं चरिममुव्वंकहाणमवहिदं तम्मि रूवाहियसव्वजीवरासिणा गुणिदे पढममह कहाणमुप्पज्जदि। एदस्स हाणंतरं पुव्विल्लासेसहाणंतरेहितो अणंतगुणं । एदस्स फदयंतरं पि पुव्विल्लासेस समाधान-उक्त कथन सत्य है, किन्तु यहाँ पर चिरकालके अनुभागका ग्रहण नहीं करते, क्योंकि यहाँ पर वृद्धि में कारणभूत अनुभागके विना केवल वृद्धिप्राप्त अनुभागका ही अधिकार है। शंका-यह कैसे जाना ? समाधान-यदि वृद्धिमें कारणभूत अनुभागके बिना वृद्धिप्राप्त अनुभागका ही अधिकार न होता तो वृद्धिकी अपेक्षा भागहार और गुणकारका कथन नहीं बन सकता था। अधस्तन अनन्तभागवृद्धिस्थानके अन्तरसे असंख्यातगुणवृद्धिस्थानका अन्तर अनन्तगुणा है तथा शेष वृद्धिस्थानोंके अन्तरसे असंख्यातगुणा है। अनन्तभागवृद्धिके प्रक्षेप स्पर्धकके अन्तरसे इस स्थानके स्पर्धकका अन्तर अनन्तगुणा है। ६१५. इस असंख्यातगुणवृद्धिस्थानमें सब जीवराशिका भाग देनेसे जो लब्ध श्रावे उसे उसी स्थानमें जोड़ देनेपर ऊपरका अनन्तभागवृद्धिस्थान होता है। अधस्तन असंख्यातगुणवृद्धिस्थानके अन्तरसे इस स्थानका अन्तर अनन्तगुणा हीन है। उसके प्रक्षेप स्पर्धकके अन्तरसे भी इस स्थानके स्पर्धकका अन्तर अनन्तगुणा हीन है। असंख्यातगुणवृद्धिके अधस्तन अनन्तभागवृद्धिकाण्डकके स्थानान्तरसे इस स्थानका अन्तर असंख्यातगुणा है। उसके स्पर्धकान्तरसे भी इस स्थानका स्पर्धकान्तर असंख्यातगुणा है। इस प्रकार काण्डकप्रमाण असंख्यातगुणवृद्धिस्थानोंकी उत्पत्ति होने तक इस क्रमको जानकर आगमानुसार ले जाना चाहिये। ६६१६. इस प्रकार काण्डकप्रमाण असंख्यातगुणवृद्धिस्थानोंकी उत्पत्ति होनेके पश्चात् एक अन्य असंख्यातगुणवृद्धिस्थानके अन्तभूत वृद्धियोंमें जो अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थान आता है उसे एक अधिक समस्त जीवराशिसे गुणा करने पर पहला अष्टांकस्थान उत्पन्न होता है। इस स्थानका अन्तर पहलेके सब स्थानोंके अन्तरसे अनन्तगुणा है। इसका स्पर्धकान्तर भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438