Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 395
________________ ३६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ वुच्चदे-बंधेण ताव एदस्स हाणस्स उप्पत्ती व होदि त्ति जं भणिदं तएण घडदे, जहण्णहाणादो अणंतवग्ग-वग्गणा-फदएहि अब्भहियसमयपबद्धम्मि अण्णाणुभागहाणुप्पत्तीए विरोहाभावादो। ण च एगो वग्गो वग्गणा फद्दयं वा एगसमयपबद्धो होदि, अरणब्भुवगमादो । ण च एगो परमाणू गहणमागच्छदि, अणंतपरमाणुसमुदयसमागमेण विणा कम्मइयजहएणवग्गणाए वि अणुप्पत्तीदो। कथं पुण तस्स समयपबद्धस्स फद्दयरचणा कीरदे, एगसमयपबद्धम्मि जदि वि परमाणू पत्थि तो वि बुद्धीए पुध कादूण परमाणु ति संकप्पिय एगहपुजं करिय णिसेगविण्णासक्कमो वुच्चदे- ६०७. तं जहा–हेहिमहाणवग्गाणुभागेहि सरिसधणियवग्गे सव्वे घेत्तूण तेसिं सव्वेसि पि हेटा चेव रयणा कायव्वा, हेहिमाणदो उवरिमरयणाए अप्पाप्रोग्गत्तादो। पुणो उव्वरिदपरमाणूणमुवरि फद्दयरयणाए कदाए विदियहाणमुप्पज्जदि । पुव्विल्लं हाणं पेक्खिदूण सव्वजीवरासिणा खंडिदेगखंडमेत्ताविभागपडिच्छेदाणमेत्थ अभिहियाणमुवलंभादो । तं जहा-दव्वहियणयजहएणहाणं चरिमफद्दय चरिमवग्गणेगवग्गसण्णिदं सव्वजीवरासिणा खंडिय तत्थ एगखंडं घेत्तूण विरलिय जहएणपक्खेवफदयसलागाणं समखंड करिय दिण्णे एक्केकस रूवस्स पक्खेवजहएण फद्दयपमाणं समाधान-इस शङ्काका समाधान करते है-बंधसे इस अनुभागस्थानकी उत्पत्ति नहीं होती यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि जघन्य अनुभागस्थानकी अपेक्षा समयप्रबद्ध में अनन्त वर्ग, वर्गणा और स्पर्धकोंसे अधिक अन्य अनुभागस्थानकी उत्पत्ति होनेमें कोई विरोध नहीं है। तथा,एक वर्ग, वर्गणा अथवा स्पर्धक एक समयप्रबद्ध होता है ऐसा भी नहीं है, क्योंकि हमने ऐसा माना नहीं है। और न यही मानते हैं कि एक परमाणुका ग्रहण होता है, क्योंकि अनन्त परमाणुओंके समुदाय समागमके बिना कोंकी एक जघन्य वर्गणा भी नहीं उत्पन्न होती। ऐसी अवस्थामें यह प्रश्न हो सकता है कि उस समयप्रबद्धमें स्पर्धक रचना किस प्रकार की जाती है इसका उत्तर यह है कि यद्यपि एक समयप्रवद्ध में एक परमाणु नहीं है अर्थात् वह स्कन्धरूप होता है तो भी बुद्धि के द्वारा उसे पृथक् करके उसमें परमाणुकी कल्पना करके उनका पुंज करके निषेक रचना क्रमका कथन करते हैं ६०७. वह इस प्रकार है-नीचेके अनुभागस्थानके वर्गमें जितना अनुभाग है उस अनुभागके समान अनुभागवाले सब वर्गों को लेकर उन सबकी नीचे ही रचना करनी चाहिये, क्योंकि नीचेके स्थानसे ऊपरकी रचना करने के अयोग्य है। पुनः शेष बचे हुए परमाणुओंकी उसके ऊपर स्पर्धक रचना करने पर दूसरा स्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि पहलेके अनुभागस्थानकी अपेक्षा इस अनुभागस्थानमें पहलेके अनुभागस्थानके सर्व जीवराशि प्रमाण खण्डोंमेंसे एक खण्ड प्रमाण अविभागप्रतिच्छेद अधिक पाये जाते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार हैद्रव्याथिकनयकी अपेक्षा जघन्य स्थानरूप अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक वर्गके सर्व जीवराशि प्रमाण खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डको लेकर विरलन करे और उस विरलनराशिके प्रत्येक एक पर जघन्य प्रक्षेपरूप स्पर्धकोंकी शालाकाओं के समान खण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति जघन्य प्रक्षेपस्पर्धकका प्रमाण आता है। १. ता० प्रा० प्रत्योः परमाणदो त्ति इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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