Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 379
________________ ३५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ फद्दयाणि विसेसा० । सव्वाणि फदयाणि विसे० । एवं फद्दयपरूवणा गदा । १५८४. अंतरपरूषणदाए अत्थि जहण्णयं फदयंतरं । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सफद्दयंतरं ति । एवं परूवणा गदा ।। ६५८५. पढमं फदयंतरं सव्वजीवेहि अणंतगुणं एवं णेदव्वं जाव उकस्सफद्दयंतरं ति । एवमंतरपमाणपरूवणा० । ६५८६. अप्पाबहुअं-सव्वत्थोवं जहण्णफयंतरं । उक्कस्सफद्दयंतरमणंतगुणं । अजहण्णअणुक्कस्सफदयंतराणि अणंतगुणाणि । अणुकस्सफदयंतराणि विसेसाहियाणि । अजहण्णफदयंतराणि विसे० । सव्वाणि फदयंतराणि विसे० । अहवा फद्दयंतराणपप्पाबहुअं ण सकिन्जदे काउं, छवढि-छहाणिकमेण अवहिदत्तादो । तं पि कुदो ? बंधहाणाणं हेहिमाणं छबिहाए वड्डीए अवहिदत्तादो । ण च एदम्हादो हाणादो हेहा बंधहाणाणमभावो, सव्यविसुद्धसंजमाहिमुहमिच्छाइहिआदीणं बंधस्स एदम्हादो हेटा दसणादो । तं जहा–संजमाहिमुहसव्वविसुद्धमिच्छादिहिणा बज्झमाणजहण्णमिच्छत्तहिदीए असंखेज्जलोगमेत्ताणि विसोहिहाणाणि भवंति । पुणो एत्थ सव्वुक्कस्सविसोहिहाणेण बज्झमाणअणुभागहाणाणि असंखेजलोगछटाणसरूवेणं होति । पुणो तत्थतणजहण्णाणुभागबंधहाणस्सुवरि तस्सेव उक्कस्साणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव विशेष अधिक है। अजघन्य स्पर्धक विशेष अधिक हैं । सब स्पर्धक विशेष अधिक हैं। इस प्रकार स्पर्धकप्ररूपणा समाप्त हुई। ५८४. अन्तर प्ररूपणामें जघन्य स्पर्धकका अन्तर है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्पर्धकके अन्तर पर्यन्त ले जाना चाहिए । इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई । ६५८५. प्रथम स्पर्धकका अन्तर सब जीवोंसे अनन्तगुणा है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्पर्धकके अन्तर पर्यन्त ले जाना चाहिए । इस प्रकार अन्तरकी प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। ६५८६. अल्पबहुत्व-जघन्य स्पर्धकका अन्तर सबसे थोड़ा है। उत्कृष्ट स्पर्धकका अन्तर अनन्तगुणा है। अजघन्य अनुत्कृष्ट स्पर्धको के अन्तर अनन्तगुणे हैं। अनुत्कृष्ट स्पर्धको के अन्तर विशेष अधिक हैं। अजघन्य स्पर्धकोंके अन्तर विशेष अधिक हैं। सब स्पर्धको के अन्तर विशेष अधिक हैं। अथवा स्पधको के अन्तरो में अल्पबहुत्व नहीं किया जा सकता; क्यों कि वे छह वृद्धियो और छह हानियो के क्रमसे अवस्थित हैं। और इसका सबूत यह है कि नीचेके बन्धस्थान छह प्रकारकी वृद्धिको लिये हुए अवस्थित हैं। तथा इस बन्धस्थानसे नीचे अन्य बधस्थानोंका अभाव नहीं है; क्योंकि सबसे विशुद्ध और संयमके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टि आदिके होनेवाला बंध इससे नीचे देखा जाता है। उसका खुलासा इस प्रकार है-संयमके अभिमुख और सर्वविशुद्र मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा मिथ्यात्व की जो जघन्य स्थिति बांधी जाती है, उसके कारणभूत असंख्यात लोकप्रमाण विशुद्धिस्थान होते हैं। पुनः यहां सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि स्थानसे बंधनेवाले अनुभागस्थान असंख्यात लोक षटस्थान रूपसे होते हैं। तथा वहां पर होनेवाले जघन्य अनुभागबन्धस्थानके ऊपर उसीका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। पुनः १. ता. प्रतौ -छट्ठाणप (स) वेण, प्रा० प्रती छटाणपरूवेण इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438