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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३३१ $ ५७०. बन्धात्समुत्पत्तिर्येषां तानि वन्धसमुत्पत्तिकानि । हते समुत्पत्तिर्येषां तानि हतसमुत्पत्तिकानि । हतस्य हतिः हतहतिः, ततः समुत्पत्तिर्येषां तानि हतहतिसमुत्पत्तिकानि । 'एए छच्च समाणा' ति इकारस्स अंकारो। एवं तिण्णि चेव अणुभागहाणाणि होति, संगहणयावलंबणादो। संपहि सण्णादिचउवीसअणियोगदारेसु परूविय समत्तेसु अणुभागस्स किं वड्डी हाणी अवहाणं वा अत्थि णत्थि त्ति पुच्छिदे तण्णिण्णयविहाण भुजगारपरूवणा कदा । वड्डमाणो अणुभागो जहण्णेण उकस्सेण वा केत्तिओ वडदि, हायमाणो वि जहण्णेण उक्कस्सेण वा केत्तिो हायदि ति पुच्छिदे तण्णिण्णयविहाण पदणिक्खेवपरूवणा कदा । अणुभागस्स वडि-हाणीओ जहणिया उक्कस्सिया चेदि कि वे चेव आहो अण्णाओ अत्थि त्ति पुच्छिदे वडीओ छविहाओ हाणीओ वि तत्तियाओ चेवे ति जाणावण वडिपरूवणा वि कदा । संपहि हाणपरूवणा ण कायव्वा, अपुव्वपमेयाभावादो । ण च पुव्वं परूविदस्सेव परूवणा जुत्ता जाणाविदजाणावणे फलाभावादो त्ति ? एत्थ परिहारो उच्चदे ण हाणपरूवणा विहला, वडिपरूवणाए परूविदछटाणाणं विसेसपरूवयत्तादो । वडीओ छच्चव, अणंतासंखेजसंखेजभागवडि-संखेज्जासंखेज्जाणंतगुणवडिभेएण। ताओ च वडिपरूवणाए तेरसअणियोगदारेहि सवित्थरं परूविदाओ । तदो पमेयाभावादो ण हाणपख्वणा कायव्वा त्ति ण पञ्चवह यं,
$ ५७०. जिन सत्कर्मस्थानोंकी उत्पत्ति बन्धसे होती है उन्हें बन्धसमुत्पत्तिक कहते हैं । घात किये जानेपर जिन सत्कर्मस्थानोंकी उत्पत्ति होती है उन्हें हतसमुत्पत्तिक कहते हैं। घाते हुएका पुन: घात किये जानेपर जिन सत्कर्मस्थानोंकी उत्पत्ति होती है उन्हें हतहतसमुत्पत्तिक कहते हैं। 'ए ए छच्च समाणा' इस नियमके अनुसार इकारके स्थानमें अकार आदेश होनेसे हत शब्द बना है। इस प्रकार संग्रहनयका अवलम्बन करनेसे अनुभागस्थान तीन प्रकारके ही होते हैं।
शंका-संज्ञा आदि चौबीस अनुयोगद्वारोंका प्ररूपण समाप्त होने पर, अनुभागकी क्या वृद्धि, हानि और अवस्थान होता है या नहीं होता ? ऐसा प्रश्र किये जाने पर उसका निर्णय करनेके लिये भुजगार प्ररूपणा की। अनुभाग यदि बढ़ता है तो जघन्य और उत्कृष्ट रूपसे कितना बढ़ता है ? यदि घटता है तो जघन्य और उत्कृष्ट रूपसे कितना घटता है ? ऐसा पूछने पर उसका निर्णय करनेके लिये पदनिक्षेपका कथन किया। अनुभागकी वृद्धि और हानि क्या जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे दो ही प्रकारकी होती है या अन्य प्रकारकी भी होती है ? ऐसा पूछने पर वृद्धि छह प्रकारकी होती है और हानि भी छह ही प्रकारकी होती है यह बतलानेके लिये वृद्धिका कथन किया। अत: अब सत्कमस्थानोंका कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि कथन करनेके लिये अपूर्व प्रमेयका अभाव है। और पहले कही हुई बातका पुनः कथन करना युक्त नहीं है, क्योंकि जानी हुई वस्तुकी पुनः जानकारी करानेसे कोई लाभ नहीं है।
समाधान-इस शंकाका समाधान करते हैं-स्थानका कथन करना निष्फल नहीं है, क्योंकि वृद्धिका कथन करते समय जिन छह स्थानोंका कथन किया है उसमें इसके द्वारा विशेष कथन किया गया है। अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिके भेदसे वृद्धियाँ छह ही हैं। वृद्धि प्ररूपणामें तेरह अनुयोगद्वारोंके द्वारा उन वृद्धियोंका विस्तारसे कथन किया है। अतः नई वस्तु न होनेसे स्थानका
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