Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 369
________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ परुविदत्तादो । किं च, ण परमाणुबहुत्तमणुभागबहुत्तस्स कारणं, सम्मत्त सम्मामिच्छतुकस्साणुभागसामित्तमुत्तरणहाववतीदो' । तं जहा - दंसणमोहक्खवगं मोत्तृण सव्वम्हि उक्कस्समिदि सामित्तमुत्तं णेदं घडदे, गुणिदकम्मं सियल क्रख रणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवण्णस्स गुणसंकमचरिमसमए वट्टमाणस्स चैव सम्मत्तु कस्साणुभागदंसणादो । सुत्ताहिप्पारण पुण खविदकम्पं सियलक्खणेणागंतून सम्मत्तं पडिवज्जिय वेद्यावहि ० भमिय दंसणमोहक्खवणं पारभिय जाव अपुव्वकरणपढमाणुभागकंडयस्स चरिमफाली पददि ताव सम्मत्तस्मुक्कस्स मणुभागसंतकम्ममिदि । ण च सुत्तमप्पमाणं, जिणवयणविणिग्गयस्स अप्पमाणत्तविरोहादो । तम्हा पदेसंबहुत्तमणुभागबहुत्तस्स कारणमिदि सिद्धं । वेयणसण्णियासमुत्तण्णहाणुववत्तीदो च णज्जदे जहा अणुभागवड़ीए कसाओ चैव कारणं ण जोगो त्ति । तं जहा - जस्स णामा - गोद- वेदणीयवेदणा खेत्तदो उक्कस्सा तस्स भावदो णियमा उक्कस्सा त्ति वेयणामुत्तं । खेदं घडदे, खविदकम्मं सियसजो गिम्मि लोगपूरणाए वट्टमाणम्हि उक्कस्साणुभागाभावादो । तदो ण जोगत्थोवत्तमणुभागथावत्तस्स कारणमिदि सदहेयव्वं । जदि वि कसाओ असुहपयडीणमणुभाग ३४० अनुभागकी वृद्धि और हानिका कारण नहीं है । अर्थात् यदि परमाणु बहुत हो तो अनुभाग भी बहुत हो और यदि परमाणु कम हों तो अनुभाग भी कम हो ऐसा नहीं है, यह अनेक बार कहा जा चुका है। तथा परमाणुओं का बहुत होना अनुभागके बहुत्वका कारण नहीं है, अन्यथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभागका कथन करनेवाला स्वामित्वका सूत्र नहीं बन सकता । उसका खुलासा इस प्रकार है- दर्शनमोहके क्षपकको छोड़कर सर्वत्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व प्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म पाया जाता है यह स्वामित्व सूत्र है परन्तु यह घटित नहीं होता, क्यो ंकि गुणितकर्माशिक लक्षणसे आकर सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले जीवके गुण संक्रमके अन्तिम समयमें वर्तमान रहते हुए ही सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभाग देखा जाता है । किन्तु सूत्र के अभिप्राय से क्षपितकर्माशिकलक्षणसे आकर सम्यक्त्वको प्राप्त करके दो छियासठ सागर तक भ्रमण करके दर्शनमोहके क्षपणको प्रारम्भ करके जब तक अपूर्वकरणके प्रथम अनुभागकाण्डककी अन्तिम फालिका पतन नहीं होता तब तक सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभाग रहता है। शायद कहा जाय कि सूत्र अप्रमाण है किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जिन भगवानके मुखसे निकला हुआ वचन अप्रमाण नहीं हो सकता । अत: प्रदेशबहुत्व अनुभागके बहुत्वका कारण नहीं है यह सिद्ध हुआ । तथा वेदनाखण्डका सन्निकर्ष सूत्र भी अन्यथा नहीं बन सकता अतः जाना जाता है कि अनुभागकी वृद्धिमें कषाय ही कारण है, योग नहीं । उसका खुलासा इस प्रकार है - जिस जीवके नाम, गोत्र और वेदनीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट है उसके भावकी अपेक्षा नियमसे उत्कृष्ट होती है । यह वेदना सूत्र है परन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि लोकपूरण समुद्धातमें वर्तमान क्षपित कर्माशिक सयोग केवलीके उत्कृष्ट अनुभागका अभाव है । अतः योगका अल्पपना अनुभाग के अल्पपनेका कारण नहीं है ऐसा श्रद्धान करना चाहिये । २. प्रा० प्रतौ तम्हा एगपदेस १. श्रा० प्रतौ - सामित्तं सुत्तरण हाणुववत्तोदो इति पाठः । इति पाठः । ३. प्रा० प्रतो च ण जुज्जदे जहा इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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