Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 359
________________ ३३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे अणुभागविहत्ती ४ ५६६. मणुस्ससु छब्बीसंपयडीणं णेरइयभंगो । सम्म०-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अणंतगुणहाणिविहत्तिया जीवा । अवत्त विहत्ति० संखे०गुणा । अवहि. विहत्ति० असंखे०गुणा । एवं [मणुस] पज्जत्त-मणुसिणीसु । णवरि सव्वत्थ संखेजगुणं कायव्वं । आणदादि जाव गवगेवेज्जा त्ति वावीसंपयडीणं सव्वत्थोवा अणंतगुणहाणिविहत्ति० जीवा । अवटि विहत्ति० असंखेज्जगुणा । सम्म०-सम्मामिच्छ०-अणंताणु०चउक्क० देवोघं आणदादिसु अणंताणु०बंधीणं छवडि-छहाणिसंभवो उच्चारणाहिप्पाएण लिहिदो, विसंजोएदूण संजुत्तम्मि तदुवलंभादो। मूलवक्खाणाहिप्पाएण पुण अणंतगुणहाणि-अवहिद-अवत्तव्वाणि चेव ।) एवं जाणिय वत्तव्वं । अणुद्दिसादि जाव अवराइदो त्ति सत्तावीसंपयडीणं सव्वत्थोवा अणंतगुणहाणिविहत्ति या जीवा । अवहिदविहत्ति० असंखे०गुणा । सम्मामि० गत्थि अप्पाबहुअं । एवं सव्वढे । णवरि संखेजगुणं कायव्वं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । एवं णीदे वडि त्ति अणियोगद्दारं समत्तं होदि । हाणपरूवणा। * संतकम्महापाणि तिविहाणि-बंधसमुप्पत्तियाणि हदसमुप्पत्तियाणि हदहदसमुप्पत्तियाणि । ५६९. सामान्य मनुष्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका नारकियोंके समान भङ्ग है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगणहानि विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव संख्यातगुण हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगणे हैं। इसी प्रकार मनुष्य पयांत और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सर्वत्र संख्यातगुणा कर लेना चाहिये। आनतसे लेकर नवग्रेवयक तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानि विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग सामान्य देवोंकी तरह है। आनत आदिमें अनन्तानुबन्धी कषायकी छह वृद्धि और छह हानियोंका होना उच्चारणाके अभिप्रायसे लिखा है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकषायका विसंयोजन करके पुन: उसका संयोजन करने पर छह वृद्धियाँ और छह हानियाँ पाई जाती हैं। किन्तु मूल व्याख्यानके अभिप्रायसे आनत आदिमें अनन्तानुबन्धी कषायके अनन्तगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पद ही होते हैं। इस प्रकार जानकर उनका कथन करना चाहिये । अनुदिशसे लेकर अपराजितविमान तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानि विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अल्पबहुत्व नहीं है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में जानना चाहिए । इतना विशेष है कि असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगणा कर लेना चाहिये । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये। __ इस प्रकार वृद्धि अनियोगद्वार समाप्त हुआ। स्थानप्ररूपणा । * सत्कर्मस्थान तीन प्रकारके हैं-बन्धसमुत्पत्तिक, हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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